सड़क पर दूर भीड़ लगी थी
एक जनसमूह का जैसे मेला लगा था
रात गहरी थी सूझ नहीं रहा था
पर लगा कुछ तो जरूर माजरा था
कौतहुलवस् मै भी भीड़ का हिस्सा
देखा तो एक लड़का लड़खड़ा रहा था
फिर पूछा, इस लड़के को देखने भीड़
देखा तो जनसैलाब मुस्कुरा रहा था
कुछ तुतलाहट वाली लब्ज में
कुछ इशारो मै वह भीड़ को कुछ समझा रहा था
मैंने सोचा होगा नसे मै धुत
इसीलिए शायद बडबडा रहा था
कुछ चेहरे था जो अपने बगल
वाले को कुछ समझा रहा था
जब लडखडाता लड़का आये
करीब, तो थप्पर भी लगा रहा था
मै एक सरीफ इज्जतदार नागरिक
की हैसियत , मेरा रुकना नागवार था
मन ने गाली दी जनसमूह को
और मै वहां से निकल गया
सुबह जब न्यूज़ देखा तो
एंकर किसी को भूखे मरते बता रहा था
तस्वीर देखा तो पता चला
वो तो रात वाला लड़का था
चैनल बदला हर चैनल पर
एक सा हीं न्यूज़ आ रहा था
एंकरों को गौड़ से देखा तो ख्याल आया
ये वो वोही है जो थप्पर और पब्लिक को समझा रहा था
(शंकर शाह)
मैं आइने में जब भी अपना चेहरा देखता हूँ...मैं खुदमे दो चेहरे पाता हूँ..एक जो ज़माने की हिसाब से दिखना चाहता है और दूसरा खुद मैं खुद को तलाशता है..कभी कभी ऐसा लगता है जो हूँ दिख जाऊं पर आइना मेरा सृन्गारित चेहरा हिन् दिखाता है.. मतलब ये है 'धोखा देना चाहे तो आइने को तो दे सकते है पर दिल का क्या करे अपने विचारो का क्या करे...
Wednesday, August 11, 2010
Tuesday, August 10, 2010
EK KHAMOSH UFF / एक खामोश उफ़फ
उम्र गाँव के गलिओं की तरह हमसे फासला बनाता रहा...कब बचपना गुजरी कब जवानी आई...जब कुछ नन्हे पाँव दुनिआदारी से कदम मिलाकर चलते है तो बरबस ख्याल आता है अपना अतीत...गरीबी एक कलाकार की तरह है...जो एक निर्बोध, निश्छल, निराकार बचपन को दुनिआदारी के ढांचे में ढाल देता है ...ऐसा उलझ कर रह जाता है शरीर जब तक पता चलता है तब उसके यादों में खुछ नहीं जो तनहा पलो में लबो पे मुस्कराहट लाये.. बस होता है तो लब पे एक खामोश उफ़फ.......
(शंकर शाह)
Saturday, August 7, 2010
Insaniyat Ke Khet / इंसानियत के खेत
जो है वो नहीं है...जो नहीं है वो है..कुछ चीजे भावनाओ के साथ ऐसी जुडी होती है..जिसे लाख गलत होने पर भी हम सही साबित करने में तुले होते है..गाँव के सुनसान रास्ते पर पड़े उस शिलालेख की तरह.. भले नाम बदल गया हो गाँव का पर अंकित मिल जायेगा पुराना पता..जाने कई सतको से सुनसान परे इंसानियत के खेत कुछ हरियाली उगना तो चाहती है...पर नजाने कब तक कथित धर्म के ठेकेदार रूपी घासें इंसानियत के फसल को उगने न देगी....
(शंकर शाह)
Friday, August 6, 2010
Dimag Ke parakhnali Me / दिमाग के परखनली में
मुझे एक आदत रही.. खुद से बात करने की...में चाँद तारो ग्रहों के आविष्कार में उलझा नहीं...उलझा तो सोच के सोच का आविष्कार में...बहुत कुछ मिले ..नए तजुरबो से मिलता रहा..पर फायदा कुछ नहीं उन सब आविष्कारो में और आविष्कारो की तरह दो पहलु निकले...सुलझाता तरह और उलझता रहा....धातुओ में रसायन का मिश्रण करके एक नया आविष्कार तो हो सकता है..पर दिमाग के परखनली में कौन सा रसायन डाले जो क्रोध, लोभ, मोह को समुचित विनाश कर सके...
(शंकर शाह)
Thursday, August 5, 2010
Andhera Jitna Bhi / अँधेरा जितना भी
जब भी देखता हूँ आसमान का दामन बादलो से घिरा हुआ....ख्यालो के समुन्द्र में ज्वार भाटा आने लगते है...कैसे आसमान अपने दामन को उस काली परछाई से छुटना चाहता है...अपने सिने में दरार पैदा करता है...एक सबक है "अँधेरा जितना भी गहरा हो छन्भंगुर है " क्योकि उजाला उससे कुछ फासला हीं दूर है....
(शंकर शाह)
Monday, August 2, 2010
Samsaan Me Ghar Banaoge / शमशान में घर बनाओगे
जिंदगी के रास्ते में बहुत अजूबे मिलते ...जिनके बारे में हम जितना राय कायम करे वो सब गलत...क्योकि हमारा विचार उनके विचारो के आकाशगंगा तक नहीं पहुँच पाता ..उन महापुरुषों में सिर्फ इतना होता है " जो हम कर रहे है वो सही है..होना भी चाहिए जिंदगी का एक तजुर्बा होता है उनके पास...जो भी हो..सही आप जितना भी ठहरालो अपने आप को परन्तु इतना तो जरूर है शमशान में घर बनाओगे तो भूत का डर तो रहेगा हीं.......
(शंकर शाह)
Saturday, July 31, 2010
Hey Bhagwan Ye Kaisi hai Bidai / हे भगवान ये कैसी है बिदाई,
जिसके साथ खेला कूदा,
जिसके साथ अकेला की लड़ाई
जिसके खुशी से खुशी होता,
जिसके गम पे दिल हो भर आई
हे भगवान ये कैसी है बिदाई,
मेरे गलतियो एवज मार से बचाने
वाली, जो मेरे लिए खुद मार खाई
जिसके कारन कभी अकेला न समझा,
न कभी दोस्तों की कमी महसूस हो पाई
हे भगवान ये कैसी है बिदाई,
साथ चलते चलते जो गुडिया थी, अब बड़ी
है हो आई, जो बहन थी, अब बेटी सी है
साईं , जिसे कभी समझा नहीं पराया धन
आज वोही कौन सी मोड़ पे है आई
हे भगवान ये कैसी है बिदाई,
जिस सिने में सिर्फ पत्थरो का डेरा था
उस सिने में भी है मोम पिघल आई
जो कल दुनिया दारी के चक्कर में पहाड़
बन गया था, उसकी आंख भी भर आई
हे भगवान ये कैसी है बिदाई,
जिन आँखों को ज़माने ने रेगिस्तान
कहा, जिस दिल को कहा पत्थर
उन्ही आँखों में ये कैसी नमी है आई
हे भगवान ये कैसी है बिदाई,
किसी से बेटी, मुझ से बहन की
आज हो रही है जुदाई
हे ऊपर वाले ये कैसी रित
एक जीवन मुझसे हो रही पराई
हे भगवान ये कैसी है बिदाई,
(शंकर शाह)
जिसके साथ अकेला की लड़ाई
जिसके खुशी से खुशी होता,
जिसके गम पे दिल हो भर आई
हे भगवान ये कैसी है बिदाई,
मेरे गलतियो एवज मार से बचाने
वाली, जो मेरे लिए खुद मार खाई
जिसके कारन कभी अकेला न समझा,
न कभी दोस्तों की कमी महसूस हो पाई
हे भगवान ये कैसी है बिदाई,
साथ चलते चलते जो गुडिया थी, अब बड़ी
है हो आई, जो बहन थी, अब बेटी सी है
साईं , जिसे कभी समझा नहीं पराया धन
आज वोही कौन सी मोड़ पे है आई
हे भगवान ये कैसी है बिदाई,
जिस सिने में सिर्फ पत्थरो का डेरा था
उस सिने में भी है मोम पिघल आई
जो कल दुनिया दारी के चक्कर में पहाड़
बन गया था, उसकी आंख भी भर आई
हे भगवान ये कैसी है बिदाई,
जिन आँखों को ज़माने ने रेगिस्तान
कहा, जिस दिल को कहा पत्थर
उन्ही आँखों में ये कैसी नमी है आई
हे भगवान ये कैसी है बिदाई,
किसी से बेटी, मुझ से बहन की
आज हो रही है जुदाई
हे ऊपर वाले ये कैसी रित
एक जीवन मुझसे हो रही पराई
हे भगवान ये कैसी है बिदाई,
(शंकर शाह)
Friday, July 30, 2010
Kuch to Tha Un Yado Me / कुछ तो था उन यादो मैं
मैं एक सफर मैं था !
मेरे उस सफर मैं
एक परिवार अपने दो
बच्चो और माँ के साथ कही जा रहा था !!
जो छोटा बच्चा था अपनी माँ के
साथ खेलने मैं मगन था !
खेल वो जो हर किसी के बचपन से है
खेल वो मेरा भी बचपन याद दिला रहा था !!
और वो बूढी अम्मा जो खिरकी के पास बैठी थी
इन पलो के देख कर कही खो गई
सायद अपने बचपन मैं
मेरी नजरे भी उस नज़ारे को देख मगन हो रहा था !!
पर कुछ तो था जो मेरे ख्यालो मैं
खलल दाल रहा था !
मेरे उस सफर मैं
एक परिवार अपने दो
बच्चो और माँ के साथ कही जा रहा था !!
जो छोटा बच्चा था अपनी माँ के
साथ खेलने मैं मगन था !
खेल वो जो हर किसी के बचपन से है
खेल वो मेरा भी बचपन याद दिला रहा था !!
और वो बूढी अम्मा जो खिरकी के पास बैठी थी
इन पलो के देख कर कही खो गई
सायद अपने बचपन मैं
मेरी नजरे भी उस नज़ारे को देख मगन हो रहा था !!
पर कुछ तो था जो मेरे ख्यालो मैं
खलल दाल रहा था !
वो बड़ा लड़का जो दादी के पास
बैठा था ' नजाने उसे क्या शैतानी सूझी वो दादी के साथ मस्ती करने लगा !!
मैंने देखा वो झुरियों से लदे चेहरे
पर एक मुस्कान का लकीर आया
पर तुंरत मैंने वो चेहरे से
मुस्कान को वापस जाता पाया !!
मैंने देखा बहु बेटे की नजर
गुस्से से उसके अपने बेटे पर पाया
लड़का माँ बाप के नजर को देख
सहम कर चुपचाप बैठ गया !!
"और वो कांपती बदन' उस
बूढी आँखों मैं दो बूंद आंसू का था "
वो ऑंखें सीकुर गई थी सायद
अतीत के यादो मे
बदन और और कांप रहा था
ऑंखें और सीकुर रही थी
पता नही उन यादों मैं क्या था !!
अतीत का वो याद जो
किसी के बचपन को सहारा दिया था
या वो जो उसके जवानी को
संवारा था !!!
"या कुछ ऐसा जो
अभी के पलो को जवानी मैं गुजारा था"
कुछ तो था उन यादो मैं
जो मेरे ख्यालो मैं खलल दाल रहा था !!!
बैठा था ' नजाने उसे क्या शैतानी सूझी वो दादी के साथ मस्ती करने लगा !!
मैंने देखा वो झुरियों से लदे चेहरे
पर एक मुस्कान का लकीर आया
पर तुंरत मैंने वो चेहरे से
मुस्कान को वापस जाता पाया !!
मैंने देखा बहु बेटे की नजर
गुस्से से उसके अपने बेटे पर पाया
लड़का माँ बाप के नजर को देख
सहम कर चुपचाप बैठ गया !!
"और वो कांपती बदन' उस
बूढी आँखों मैं दो बूंद आंसू का था "
वो ऑंखें सीकुर गई थी सायद
अतीत के यादो मे
बदन और और कांप रहा था
ऑंखें और सीकुर रही थी
पता नही उन यादों मैं क्या था !!
अतीत का वो याद जो
किसी के बचपन को सहारा दिया था
या वो जो उसके जवानी को
संवारा था !!!
"या कुछ ऐसा जो
अभी के पलो को जवानी मैं गुजारा था"
कुछ तो था उन यादो मैं
जो मेरे ख्यालो मैं खलल दाल रहा था !!!
(शंकर शाह)
Thursday, July 29, 2010
Khud Se Bate / खुद से बाते
धरती है आसमान है..आसमान है धरती है..मै हूँ शरीर है..शरीर है मै हूँ..नदी से मछली का रिश्ता, तारों से आसमान का..इन रिस्तो को सिर्फ हमारी विचारे हीं नाम दे सकती है..पर तनहा दिन रात से बूढी माँ का रिश्ता ...जैसे पहला सपना सच होने का..सवाल नाम देने का नहीं है...सवाल महसूस करने का है..की मैंने क्या महसूस किया..कभी महसूस करने से खुशी होती है तो कभी गम...जो भी हो मजा आयेगा..एक बार खुद से बाते करके तो देखिये
(शंकर शाह)
Monday, July 26, 2010
Sujan Bhagat ko Mujhse Milne To Do / सुजान भगत को मुझसे से मिलने तो दो
मेरे तनहाइयों को आवाज़ बनने दो
मेरे आंसुओ को मेरा जज्बात बनने दो
अगर गिर पड़ा होश खोकर
मेरे हौसले को मेरा सहारा बनने दो
नहीं चाहिए साथ आपका
अब हाथो में वो ताकत नहीं
उठा ले जो बोझ आपके दिए सितम का
वो सितम को मेरा मुस्कान बनने दो
मुझे मेरे हाल पे रहने दो
जिन्दा हूँ " वो आपकी बद्दुआ है"
दुआ है की आप खुश रहो
मुझे घर का खाट बनने दो
मेरी लाश आपकी बोझ नहीं होगी
ज़रा वक़्त, मेरे कदमो को सम्भलने दो
में कल हीं नहीं, आज भी हूँ
थोड़ा मौसम को तो बदलने दो
जिया कल भी था, और जिन्दा भी हूँ
कल में ताकत था आपका, अब सिसक रहा हूँ
मेरी सिसक को अब रौद्र बनने दो
अब मेरी जिंदगी को मेरी ताकत बनाने दो
बहुत सहा जिल्लत इन दिनों
अभिमान को खिलने दो
फिर लौटूंगा पुराने रुख में
सुजान भगत को मुझसे से मिलने तो दो
(शंकर शाह)
मेरे आंसुओ को मेरा जज्बात बनने दो
अगर गिर पड़ा होश खोकर
मेरे हौसले को मेरा सहारा बनने दो
नहीं चाहिए साथ आपका
अब हाथो में वो ताकत नहीं
उठा ले जो बोझ आपके दिए सितम का
वो सितम को मेरा मुस्कान बनने दो
मुझे मेरे हाल पे रहने दो
जिन्दा हूँ " वो आपकी बद्दुआ है"
दुआ है की आप खुश रहो
मुझे घर का खाट बनने दो
मेरी लाश आपकी बोझ नहीं होगी
ज़रा वक़्त, मेरे कदमो को सम्भलने दो
में कल हीं नहीं, आज भी हूँ
थोड़ा मौसम को तो बदलने दो
जिया कल भी था, और जिन्दा भी हूँ
कल में ताकत था आपका, अब सिसक रहा हूँ
मेरी सिसक को अब रौद्र बनने दो
अब मेरी जिंदगी को मेरी ताकत बनाने दो
बहुत सहा जिल्लत इन दिनों
अभिमान को खिलने दो
फिर लौटूंगा पुराने रुख में
सुजान भगत को मुझसे से मिलने तो दो
(शंकर शाह)
Saturday, July 24, 2010
Mai Aakar Le Rahi Hoon maa / मै आकार ले रही हूँ माँ
मै आकार ले रही हूँ माँ
तेरे सपने रूप साकार ले रही हूँ माँ
टूटे तारों से मांगी दुवा की
एक आकार हूँ
तेरे सपनो के सच्चाई
की रूप साकार हूँ
ख्याली खेत पर लगाई फसल
उभार ले रही हूँ माँ
मै आकार ले रही हूँ माँ
तेरे अन्खेले किती किती
की गोटी हूँ
तेरे खामोश अल्हर्पण
की मोती हूँ
तेरे अकेले पण की पुकार
अवतार ले रही हूँ माँ
मै आकार ले रही हूँ माँ
काली अमावस सी डर में
देवदूत की आहट हूँ
तेरे बैचेन रात दिन की
मै राहत हूँ
तेरे प्राथना पुकार की अनुगूँज
तुझमे सुप्त पड़ी माँ दुर्गा ,
काली रूप धार ले
मूर्च कटार धार ले रही हूँ माँ
मै आकार ले रही हूँ माँ
तेरे सपने रूप साकार ले रही हूँ माँ
टूटे तारों से मांगी दुवा की
एक आकार हूँ
तेरे सपनो के सच्चाई
की रूप साकार हूँ
ख्याली खेत पर लगाई फसल
उभार ले रही हूँ माँ
मै आकार ले रही हूँ माँ
तेरे अन्खेले किती किती
की गोटी हूँ
तेरे खामोश अल्हर्पण
की मोती हूँ
तेरे अकेले पण की पुकार
अवतार ले रही हूँ माँ
मै आकार ले रही हूँ माँ
काली अमावस सी डर में
देवदूत की आहट हूँ
तेरे बैचेन रात दिन की
मै राहत हूँ
तेरे प्राथना पुकार की अनुगूँज
तुझमे सुप्त पड़ी माँ दुर्गा ,
काली रूप धार ले
मूर्च कटार धार ले रही हूँ माँ
मै आकार ले रही हूँ माँ
(शंकर शाह)
Friday, July 23, 2010
Jo Hai Us Se / जो है उस से
जो है उस से खुश नहीं..उस से बेहतर पाने की ख्वाहिश...जो है जो पाना चाहते थे..जो पाना चाहते थे मिला पर बेहतर नहीं.. जो है उसी में से है पर धोखा इस बार शायद कुछ अलग हो...पाने की ख्वाहिश बहुत कुछ करने को प्रेरित करता है...और प्रेरित आत्मा समझौते के लिए..और समझौते के नीव से बनी रिश्ते को जब नाम मिल जाये तो उसका कोई मौल नहीं..फिर से एक नए नीव की तैयारी..अनजान सुनसान रास्ता आगे बढ़ने को प्रेरित करता है ..बेहतर बनाना और बेहतर पाने में बहुत अंतर है...जहा पाना बढ़ने को प्रेरित करता है वही बनाना जो है उसी को बेहतर....फैसला आपका......
(शंकर शाह)
Thursday, July 22, 2010
Mahan Aviskar Ka Avishkarkarta / महान आविष्कार का आविष्कारकर्ता
ख्वाबो के गिनती से अलग होकर जब रात के आगोश में लौटता हूँ तो असमान अपने तरफ आकर्षित करने लगता है.उलझ जाता हूँ तारों से अंखियों का छुपनछुपाई खेलने में.सप्तऋषिओं का खोज ऐसा लगता है जैसे किसी महान आविष्कार का आविष्कारकर्ता में हीं हूँ.हवा दोस्त का लोरी सुनकर जब आंख पलक झलकने लगते है तो चंदामामा कान में आकर फुसफुसा कर कहते हैं रात अभी बाकि है.फिर हाँथ नए आविष्कार के लिए तारो को आँखों के दायरे में कैद करने लगता है........
(शंकर शाह)
Wednesday, July 21, 2010
Jindagi Se Sirf / जिंदगी से सिर्फ
कई पल ऐसे आय जिंदगी में जब सवाल नहीं था...विश्वाश था ऊपर वाले के ऊपर..एक बृक्ष से लोभ रूपी प्यार जैसा ...घासों को रौंदा बहुत पैरो तले और रौंद्वाया भी..गिरा खड़ा हुआ तो गाली देते हुए..कुछ लम्हों को हटा दे तो जिंदगी से सिर्फ शिकायते होती है..मेरे विश्वास में खोट हो या उपरवाला हीं न हो इससे कोई मतलब नहीं..तकलीफ होता है जब वो कुछ पल ...दिमाग रूपी जाल से निकल कर आत्मा रूपी चलनी में चल कर मुझे मेरा चेहरा दिखाता है
(शंकर शाह)
Tuesday, July 20, 2010
Aina Bhi To / आइना भी तो
अपने हथेली को गौर से देखा तो ऐसा लगा कुछ मेरे हाथो से छुट चूका है...कुछ ऐसा है जो में भूल रहा हूँ...यादो के समंदर में गोता लगाकर ढूंढने लगा वो मोती..मिला भी तो एक मजदूर के रूपमें मेरा जीवन चक्र..भागमभाग भरी जिंदगी में भागता रहा कब जीवन चक्र बुढ़ापे के देहलीज पर पहुँच गया पता हीं न चला..बच्चो के चेहरे को देखकर आइना भी तो झूठ बोलता रहा..
(शंकर शाह)
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