काली रात के सुनसान विचारो मैं अचानक घटा घिर आई विजली कड़कने लगी....जोरदार बारीश, तूफान तबाही मचाने लगे..मैं अकेला अपनी झोपरी में बैठा रहा....विजली रूपी अहंग्कार..तूफान रूपी झूठ..काली रात रूपी मेरी अविश्वास..मेरे झोपड़े को तोडके उसे बहा ले गए..इन सब के बिच में.. मैं समय टल जाने का इन्तेजार करता रहा..नए झोपड़े बनाने के लिए...हर इस काली रात के बाद एक नया तजुर्बा और इस नए तजुर्बे से के नया झोपड़ा.... अब तो बस देखना यह है की इस आत्म युद्ध मैं हारता कौन है और जीत कौन रहा....
(शंकर शाह)
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