माँये क्यों हमेशा उस चिराग की तरह रह जाती जो सबको प्रकाशित करके खुद के कोने मैं उजाले को तरश जाती है....माँये क्यों उस नदी की तरह होती है जो सबको स्वच्झ करके अपने अस्तित्व को तरसती है...माँये क्यों धरती की तरह होती है....क्यों माँये ही त्याग, बलिदान, समझौता करती है...जिस धरती के इंसान को वो भगवान बनाती है क्या उसका कोई फर्ज नहीं है अपने भक्त के लिए....
(शंकर शाह)
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