सोचता हूँ सोच के ऊपर की क्या सोचूं, फिर सोच सोच के सोच के दायरे में कैद हो जाता हूँ, फिर एक सोच ऐसा क्यों सोचा और ये सोच आई भी तो कहाँ से..फिर सोच के सोच पर द्वंध फिर सोचना चालू..बहुत प्यारा खेल है ये सोचना भी एक बार सोच के सोच को सोच के तो देखो......
(शंकर शाह)
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