मैं आइने में जब भी अपना चेहरा देखता हूँ...मैं खुदमे दो चेहरे पाता हूँ..एक जो ज़माने की हिसाब से दिखना चाहता है और दूसरा खुद मैं खुद को तलाशता है..कभी कभी ऐसा लगता है जो हूँ दिख जाऊं पर आइना मेरा सृन्गारित चेहरा हिन् दिखाता है.. मतलब ये है 'धोखा देना चाहे तो आइने को तो दे सकते है पर दिल का क्या करे अपने विचारो का क्या करे...
कहता है जमाना क्यों सोचता इतना..कहता है क्यों लिखता है कड़वाइ को..क्यों नहीं जीता आज को.. क्यों डराता है सच्चाई को...बहुत "क्यों" है दोस्तों जो हर रोज सामना करता हूँ.. यूँ रेत न बनता पत्थर अगर सदियों तक ज़माने के तपिश ने उसे तपाया न होता..मै आज "हम" होता अगर सच्चाई को गले न लगाया होता...
थोडा नजर तो घुमा
सामने समसान दिख रहा है
ना व्यव्हार बना रहा है ना
त्यौहार मना रहा है
दिवाली हो की होली सब तो
ऑफिस में हीं मना रहा है
ये सब तो ठीक है पर
हद तो वहाँ हो रही है
शादी की निमंत्रण मिला तो
मान मान वहा जा रहा है
दिल पूछता है मेरा
अरे दोस्त तू कहाँ जा रहा है?
फ़ोन बुक भरा हुआ है दोस्तो से
किसी से मिलने मुस्किल से जा रहा है
अब तो हद हुइ घर का त्योहार भी
तो हाल्फ डे मे मना रहा है
दिल पूछता है मेरा
अरे दोस्त तू कहाँ जा रहा है?
किसी को पता नहीं
ये रस्ता कहा जा रहा है
फिर भी है की वो चला जा रहा है
किसी को डोलर की ख्वाहिश
तो रुपये के पिछे भाग रहा है
દિલ પૂછે છે મારું અરે દોસ્ત તૂ ક્યાં જાય છે ? જરાક નજર તો નાખ, સામે સમસાન દેખાય છે ના વ્યવહાર સચવાય છે ના તહેવાર સચવાય છે દિવાળી હોય કે હોળી ઓફીસ માં ઉજવાય છે આ બધું તો ઠીક હતું પણ હદ તો ત્યાં થાય છે લગ્ન ની કન્કોક્ત્રી મળે ત્યાં શ્રીમંત માં માંડ જવાય છે દિલ પૂછે છે મારું અરે દોસ્ત તૂ ક્યાં જાય છે? ફોન બૂક ભરેલા છે મિત્રો થી કોઈક ના ઘેર ક્યાં જવાય છે હવે તો હદ થઇ ઘર ના પ્રસંગો પણ હાફ ડે માં ઉજવાય છે દિલ પૂછે છે મારું અરે દોસ્ત તૂ ક્યાં જાય છે? કોઈક ને ખબર નથી આ રસ્તો ક્યાં જાય છે થાકેલા છે બધ્ધા છત્તા ચાલતા જ જાય છે, દિલ પૂછે છે મારું અરે દોસ્ત તૂ ક્યાં જાય છે? કોઈક ને સામે રૂપિયા તો કોઈક ને ડાલર દેખાય છે તમેજ કહો મિત્રો સુ આનેજ જીંદગી કેહવાય છે, દિલ પૂછે છે મારું અરે દોસ્ત તૂ ક્યાં જાય છે?
मौसम बदला ऋतू बदली बागो में फूल खिले, पेड़ो पर फल फले कोयल मुस्कुराई, अपने मीठे स्वर में संगीत सुनाई..फिर मौसम बदला ऋतू बदली बाग़ अब लगते है उजरे उजरे..पेड़ उदास साम सा अपने टूटे पत्तियों को समेत रहा...कोयल जो मीठा संगीत सुनाती..वक़्त के साथ उर चली..बदलाव जीवन का मौत जैसा सच..ऋतुएं तो बदलती रहेगी मौसम भी...पर कब तक उन जैसे हम भी...फिर बसंत आयेगी..फिर से जिंदगी मुस्कुराएगी..तब तक क्या जिंदगी धर्केगी..कल तो हर रोज आता है पर आज क्या कल फिर आयेगी..?
रोये बहुत रोये फिर लग गये काम में वो..पर था कोई जो रोया नहीं..आंशुओ को पीता रहा और गम से अपने क्रांति की गोदाम को भरता रहा.उसे बनना था क्रांतिवीर जो ज़माने का आवाज़ बनता या तालिबान, माओबादी, या आतंकवाद का एक थूकदान...जब अपना आवाज़ अपने को चिर के अपने तक पहुँचता है तो एक क्रांति की सुरुआत होती है..पर क्रांति की परिभासा कैसा हो वो क्रांतिवीर पर निर्भर करना है..
इतिहास पढ़ पढ़ कर पोंगा पंडित बन तो गया..पर आज का गवाह बनना चाहा नहीं..बुढा पीपल कहता तो है "शांत,शीतल,निर्मल बनो" पर ए/सी पंखे के निचे उकसा महत्व है सही ..चाँद तारो के अविष्कार में उलझा रहा..मै क्यों हूँ पता नहीं...बंद घर में जो भी करले घुटन तो होगा..तो चलो लगा ले चौपाल अपने आत्मा के निचे और सुनादे एक फैसला उसके हक में...पता ना कल होगा भी या नहीं......
सोचता हूँ सोच के ऊपर की क्या सोचूं, फिर सोच सोच के सोच के दायरे में कैद हो जाता हूँ, फिर एक सोच ऐसा क्यों सोचा और ये सोच आई भी तो कहाँ से..फिर सोच के सोच पर द्वंध फिर सोचना चालू..बहुत प्यारा खेल है ये सोचना भी एक बार सोच के सोच को सोच के तो देखो......
सीसे की छनक या चेतावनी अपसकुन का...हवा का वेग प्यारा संगीत या फिर आहट तूफान का..नदी की धारा जीवन की रुख या संकेत अंतिम पराव का..मेरा होना कुछ आँखों की चमक या फिर गम उनके जीवन का...सोचो सोच से हीं होता है देव असुर की उत्पत्ति मन में हमारे धारा वेग जीवन में...सोच का दरवाजा बंद फिर क्या है मोल इंसान जीवन का..........
छुक छुक करती जिंदगी के सफ़र हम एक रेलगाड़ी ...सफ़र में अनगिनत स्टेशन और हर स्टेशन कुछ नए तो कुछ पुराने सवारी...जिंदगी के डब्बे में बैठाया और फिर चल दिए..कुछ उतरते कुछ चढ़ते अविरल सफ़र चलता रहता..जब तक चल रहा गाड़ी तब तक सब अपने पराये जब रुक गई तो क्या..है येही जिंदगी दोस्तों जी लो अपने आत्मा को फिर न जाने ऊपर क्या...नीला अम्बर जब खुली आँखों से दीखता गहरा तो बंद आँखों से धुन्धोगे क्या...........
मुरारी लाल सिर्फ सपने नहीं देखता वो अपने मेहनत अपने प्रतिभा से एक दुनिया बनाना चाहता है अपना....वो गाँव के गलियों को छोड़कर सहर के स्ट्रीट का छांक छान रहा है...की कोई उसके प्रतिभा को भी पहचाने...कहने को अपने मेहनत और प्रतिभा से वो एक दुनिया तो बना सकता है...पर नींव के लिए जमीन कहा से लाये..दुनिया में लाखो प्रतिभाये जन्म लेती है पर कई अपने आप को साबित कर पाते है..वक़्त को प्रतिभा की तलाश है पर वो वक़्त आयेगा कब..जब परखने वाला प्रतिभा को प्रभावित बनाएगा, प्रभावहीन नहीं.......
जब तुम दीपक मे प्रजवलीत हो रहे थे मै तुम्हारी छाया थी...जब तुम नदी थे मै तुम्हारी धारा थी..जब तुम शरीर थे तो मै तुम्हारी साया थी...तुम्हारी साया..कैसे कह सकते हो अँधेरे मै तुम्हारे साथ थी नहीं..तुम रोशन हो रहे थे मै शीतल रही...तुम चल रहे थे मैंने वेग दी..जब तुम बिखर गए मैं तुम्हारे हर कण मैं बंट गई..जन्मो जन्म का ये प्यार मेरा पर फिर भी क्या मै बेवफा सही
परीक्षा के समय मै जब महसूस हुआ उतीर्ण नहीं हूँगा.. तो नींद से समझौता किया..जब भूख लगी जो मिला उसी से समझौता कर लिया..खड़ा होके सफ़र करने के बजाय जहा मिला जगह उसी में समझौता कर लिया..लालसा, डर से समझौते का जन्म होता है..समझौता बुरा नहीं है करना चाहिए..पर आत्मा को कोठरे मैं बंद करने के नहीं..
इंसान सवालो के घेरे में कैद सा हो के रह गया....जब तक वह एक सवाल का जबाब खोजता है तब तक उस सवाल के मायने बदल गए होते है.."सवाल" सवाल अगर पथ है तो जबाब भूल भुलैया..जब सब बाधाओ को पार कर हम पहुँच जाते है तो सवाल फीर से एक सवाल कर बैठता है...मतलब ये है की सवाल के उलझन को जितना सुलझाना चाहेंगे उतना उलझता जाता है..पर ऐसा नहीं है की सुलझेगा नहीं..बस फैसला यह करना है की पहेले उलझना है की नहीं....
मै जमीन बन रहा था और ख्वाहिसे आसमान बन रहे थे...मै एक कली की तरह आकार ले रहा था और तुम सिखर चट्टान बन रहे थे..तुम ग्रहों के परिक्रमा में सूरज बन रहे थे...और मैं नदी धारा की तरह प्रवाहित हो रहा था..तुम अपने लोलुप हाथो में तारो को समेत रहे थे और मै अहिस्ता धड़क रहा था....और एक दिन मै नए सफ़र पर निकल लिया..तुम्हारी मुट्ठी खुली देखा तो वो जुगनू था...वो भी उर चला एक नए तलाश में....
काली रात के सुनसान विचारो मैं अचानक घटा घिर आई विजली कड़कने लगी....जोरदार बारीश, तूफान तबाही मचाने लगे..मैं अकेला अपनी झोपरी में बैठा रहा....विजली रूपी अहंग्कार..तूफान रूपी झूठ..काली रात रूपी मेरी अविश्वास..मेरे झोपड़े को तोडके उसे बहा ले गए..इन सब के बिच में.. मैं समय टल जाने का इन्तेजार करता रहा..नए झोपड़े बनाने के लिए...हर इस काली रात के बाद एक नया तजुर्बा और इस नए तजुर्बे से के नया झोपड़ा.... अब तो बस देखना यह है की इस आत्म युद्ध मैं हारता कौन है और जीत कौन रहा....
माँये क्यों हमेशा उस चिराग की तरह रह जाती जो सबको प्रकाशित करके खुद के कोने मैं उजाले को तरश जाती है....माँये क्यों उस नदी की तरह होती है जो सबको स्वच्झ करके अपने अस्तित्व को तरसती है...माँये क्यों धरती की तरह होती है....क्यों माँये ही त्याग, बलिदान, समझौता करती है...जिस धरती के इंसान को वो भगवान बनाती है क्या उसका कोई फर्ज नहीं है अपने भक्त के लिए....