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MERI KAHANI

Wednesday, June 9, 2010

Mai Tumhari Saya / मै तुम्हारी साया

जब तुम दीपक मे प्रजवलीत हो रहे थे मै तुम्हारी छाया थी...जब तुम नदी थे मै तुम्हारी धारा थी..जब तुम शरीर थे तो मै तुम्हारी साया थी...तुम्हारी साया..कैसे कह सकते हो अँधेरे मै तुम्हारे साथ थी नहीं..तुम रोशन हो रहे थे मै शीतल रही...तुम चल रहे थे मैंने वेग दी..जब तुम बिखर गए मैं तुम्हारे हर कण मैं बंट गई..जन्मो जन्म का ये प्यार मेरा पर फिर भी क्या मै बेवफा सही
 


(शंकर शाह)

Monday, June 7, 2010

Lalsa Darr se Samjhoute / लालसा, डर से समझौते

परीक्षा के समय मै जब महसूस हुआ उतीर्ण नहीं हूँगा.. तो नींद से समझौता किया..जब भूख लगी जो मिला उसी से समझौता कर लिया..खड़ा होके सफ़र करने के बजाय जहा मिला जगह उसी में समझौता कर लिया..लालसा, डर से समझौते का जन्म होता है..समझौता बुरा नहीं है करना चाहिए..पर आत्मा को कोठरे मैं बंद करने के नहीं..



(शंकर शाह)

Saturday, June 5, 2010

Sawalo ke Ghere / सवालो के घेरे

इंसान सवालो के घेरे में कैद सा हो के रह गया....जब तक वह एक सवाल का जबाब खोजता है तब तक उस सवाल के मायने बदल गए होते है.."सवाल" सवाल अगर पथ है तो जबाब भूल भुलैया..जब सब बाधाओ को पार कर हम पहुँच जाते है तो सवाल फीर से एक सवाल कर बैठता है...मतलब ये है की सवाल के उलझन को जितना सुलझाना चाहेंगे उतना उलझता जाता है..पर ऐसा नहीं है की सुलझेगा नहीं..बस फैसला यह करना है की पहेले उलझना है की नहीं....



(शंकर शाह)

Thursday, June 3, 2010

Tum Graho Ke Prarikrama me / तुम ग्रहों के परिक्रमा में

मै जमीन बन रहा था और ख्वाहिसे आसमान बन रहे थे...मै एक कली की तरह आकार ले रहा था और तुम सिखर चट्टान बन रहे थे..तुम ग्रहों के परिक्रमा में सूरज बन रहे थे...और मैं नदी धारा की तरह प्रवाहित हो रहा था..तुम अपने लोलुप हाथो में तारो को समेत रहे थे और मै अहिस्ता धड़क रहा था....और एक दिन मै नए सफ़र पर निकल लिया..तुम्हारी मुट्ठी खुली  देखा तो वो जुगनू था...वो भी उर चला एक नए तलाश में....
 


(शंकर शाह)

Wednesday, June 2, 2010

Atmyudh / आत्म युद्ध

काली रात के सुनसान विचारो मैं अचानक घटा घिर आई विजली कड़कने लगी....जोरदार बारीश, तूफान तबाही मचाने लगे..मैं अकेला अपनी झोपरी में बैठा रहा....विजली रूपी अहंग्कार..तूफान रूपी झूठ..काली रात रूपी मेरी अविश्वास..मेरे झोपड़े को तोडके उसे बहा ले गए..इन सब के बिच में.. मैं समय टल जाने का इन्तेजार करता रहा..नए झोपड़े बनाने के लिए...हर इस काली रात के बाद एक नया तजुर्बा और इस नए तजुर्बे से के नया झोपड़ा.... अब तो बस देखना यह है की इस आत्म युद्ध मैं हारता कौन है और जीत कौन रहा....



(शंकर शाह)

Tuesday, June 1, 2010

Maa yen Kyon / माँये क्यों

माँये क्यों हमेशा उस चिराग की तरह रह जाती जो सबको प्रकाशित करके खुद के कोने मैं उजाले को तरश जाती है....माँये क्यों उस नदी की तरह होती है जो सबको स्वच्झ करके अपने अस्तित्व को तरसती है...माँये क्यों धरती की तरह होती है....क्यों माँये ही त्याग, बलिदान, समझौता करती है...जिस धरती के इंसान को वो भगवान बनाती है क्या उसका कोई फर्ज नहीं है अपने भक्त के लिए....
 


(शंकर शाह)

Monday, May 31, 2010

Samkhoute Ki Jindagi / समझौते की जिंदगी

जब पडोसी का गलती देखा तो सोचा प्रतिवाद करू पर पापा का चेहरा याद आ गया....फिर पाठसाला गया वहां गुरूजी का गलती देखा फिर वहां सोचा प्रतिवाद करू पर अंक कट जायेंगे ख्याल आया...बाजार आया वहां देखा कुछ लडको का गलती फिर सोचा प्रतिवाद करू पर मार खाने का डर आया....फिर नौकरी वहां मालिक का शोषण फिर सोचा प्रतिवाद करू पर नौकरी खो देने का डर आया ....इसी तरह डर के साथ समझौते की जिंदगी जी रहा हूँ....कई बहानो के  साथ...ताकि मेरा डर शानवघार  मुखौटे के सामने ढक जाये....
 


(शंकर शाह)

Saturday, May 29, 2010

Majboori Ka Chola / मजबूरी का चोला

जब इंसानियत "बाद" को देखता हूँ...तो सोचता हूँ बुद्हम: सरनम: गच्छामी हो जाऊ तो कभी सोचता हूँ शिव तांडव करू....और इस विचार रूपी सोच के सोच पर बहुत आगे निकल जाता हूँ...और वास्तविकता वहीँ वहीँ रह जाता है...सवाल यह नहीं है की कुछ इन्सान इंसानियत को "बाद" क्यों कर रहा है...सवाल ये है की मैं क्या करू ?....और इसी तरह एक विषय को लेके सोच और विचार का द्वंध में हार जीत का फैसला करने में लग जाता हूँ...जीता हारा कौन उससे कोई लेना देना नहीं मैं कितना जल्दी उस द्वंध से निकल पाया वो मायने रखता है....कभी मजबूरी का चोला पहेनकर तो कभी केह्कर की "मैं क्या कर सकता हूँ".......
 


(शंकर शाह)

Friday, May 28, 2010

Yadein / यादे

"यादे" कभी गर्मी में सीतल हवा के झोंका का सा....कभी पीपल के छाओं जैसा तो कभी प्यासे राही को मिल जाये पानी का कुँवा सा...और कभी रेगिस्तान के सफ़र जैसा तो कभी रास्ते मैं खड़े चट्टान सा...याद कभी मीठा चुभन सा तो कभी खुद से अलग होती धड़कन सा....जिंदगी यादो से और याद जिंदगी सा..जो भी हो पर इसके पीछे तो है त्याग प्यार और एहसास छुपा...जो खास खामोश लम्हों में लगता है जुड़ा सरीर से साया  सा...........
 



(शंकर शाह

Wednesday, May 26, 2010

Jiwan Geet Ek / जीवन गीत एक

चाँद से चमक लेकर..कलियों से मुस्कुराना..हवाओं से महक बादलो से सरमाना..
यूँ तैयार होता हर रात सुनसान ख्वाबो मैं एक तस्वीर बनाना...नित: बानाता हूँ एक तस्वीर कभी वो मेरे सोच की परी होती है तो कभी मेरे सोच रूपी विरह की अग्नि...और यूँ हीं चलता रहता है मेरा तन्हा सफराना..आखिर मैं भी तो इंसान हूँ...आखिर मेरा भी तो है एक जीवन गीत एक ....
 


(शंक्कर शाह)

Monday, May 24, 2010

Pratibha Na Ling se / प्रतिभा न लिंग से

चट्टान को तोड़ राह बनाना, आसमान मै पंछियों को ठेंगा दिखाना, चाँद पे पहुँच उसके वास्तविकता को निहारना और सूर्य से आंख मिलाके उसके चुनौती स्वीकारना..क्या है ये...
चुनौती से कुछ करने की प्रेरणा, प्रेरणा से प्रतिभा, और प्रतिभा से एक नायक पैदा होता है..
प्रतिभा न लिंग से ताल्लुक रखता है न किसी जाती विशेस से......तो स्वीकार लो चुनौती और करदो.........


(शंकर शाह)

Saturday, May 22, 2010

Hunsna Prithvi Jaisa / हंसना पृथ्वी जैसा

हंसना पृथ्वी जैसा एक आकार अपने चेहरे पे..और पृथ्वी जैसा विभिन्ताये लिए...किसी के दुःख पे हंसा तो उसका दुःख बाँट लिया...किसी के खुसी पे हंसा तो उसके ख़ुशी को एहसास कर लिया...किसी ने इज्जत उतारा तो हंसके सहमति दे दिया की उतर गया..कितना अजब है ना...पर रोना माँ के चेहरे जैसा है...एक उदास चेहरा जो अपने कलेजे को जमाना नाम के कसाई के हवाले कर रही हो...पर हम पृथ्वी जैसे गोलाई लिए......:)


(शंकर शाह)
 

Friday, May 21, 2010

Chalna Jindagi Hai / चलना जिंदगी है

सुना है घोर कलियुग है...सृष्टी की अंतिम घड़ी है या पुनः सतियुग आयेगा..
पर सतियुग और कलियुग इन दोनों मैं प्रकिती कहा बदल गयी है ? क्या पेड़ो ने फल देना बंद कर दिया है..क्या धरती में फसल की जगह और कुछ उगने लगे है..सोचो..परिवर्तन प्रकिती मै नहीं है परिवर्तन हम मनुष्य ने लाया है...फिर सोचना बदलाव का, किसी के द्वारा क्या संभव है ...चलना जिंदगी है रास्ता उसका सोच...पर रास्ते में "मोड़ भी तो आते है"....
 

(शंकर शाह)

Wednesday, May 19, 2010

Kash Is Bahane / काश इस बहाने

हे सूर्य अपना किरणों को बाँट दो...हे पवन आप अपने हवाओ मैं अलग एहसास दो...हे पानी उसमे जीवन कुछ खास दो....हे प्रकृति कुछ ऐसा करो जो सबको सबसे अलग एहसास हो...
आखिर सवाल है यहाँ धर्म का है...और पता तो चले किस धर्म के शासक के हुक्म से हमे जीवन दे रहे हो..काश इस बहाने तो पता चल जाये...





(शंकर शाह)

Tuesday, May 18, 2010

Kaha Hai Lachari / कहा है लाचारी

सागर से गहरा, नील आकाश से फैला, झरनों से सीतल, चाँद से सुनेहरा, धरती जैसी औरत  माँ और उनका प्यार...पर जब भ्रूण हत्या की बात आती है तो सबसे ज्यादा जिम्मेवार कौन है? जिस औरत को माँ दुर्गा, काली, सरस्वती देवीओं मैं गिना जाता है, और उन्ही के घर मैं ऐसा...पर क्यों..कमी कहाँ है..आप हीं अवतार हो और आपसे हीं सारा अवतारी..फिर कहा है लाचारी...?
(शंकर शाह)