कुछ आत्माओ के आवाज़ बढ़ रहे है मेरे आत्मा में सोये इंसान को जगाने के
लिए...वो पविव्त्र आवाज़ है ऐसा नहीं कहता.. पर कुछ तो है, उस आवाज़ का
स्पर्श झंझोर्ता है मेरे अन्दर के इन्सान को...एक गहरी नींद है जो सपनो में
मुझे इंसान बनाये हुए है.. और मै जानता भी हूँ की मै नींद में हूँ...मै
सोया हुआ हूँ, एक आलस है जो कहती है की तू कर्मवीर है..पर वो आवाज़ जो
झ्न्झोर रही है जगाने के लिए ?...सपने और सच का द्वंध है.. उम्मीद है मै जग
जाऊंगा इस से पहले की झूठा नींद हमेशा के लिए न सुला दे मुझे....
(शंकर शाह)मैं आइने में जब भी अपना चेहरा देखता हूँ...मैं खुदमे दो चेहरे पाता हूँ..एक जो ज़माने की हिसाब से दिखना चाहता है और दूसरा खुद मैं खुद को तलाशता है..कभी कभी ऐसा लगता है जो हूँ दिख जाऊं पर आइना मेरा सृन्गारित चेहरा हिन् दिखाता है.. मतलब ये है 'धोखा देना चाहे तो आइने को तो दे सकते है पर दिल का क्या करे अपने विचारो का क्या करे...
Thursday, July 19, 2012
Friday, June 15, 2012
Khamosh Sham / खामोश साम
बार बार, हर बार,
हर कोई ने ने मुझे
पढ़ने की कोशिस की
और मै खुली किताब
की तरह तुम्हारी नजरो
से दिमाग में उतरता रहा...
कुछ पन्ने मेरे कोड़े थे..
और वो तुम न जाने कब
मेरे कोड़े पन्नो में
शब्द बन
उतर गई
कभी कभी इतिहास
गलिओं में उतर जाता हूँ मै
और विज्ञानं की तरह
दिल और तुम्हारे होने के बिच
रिस्तो पे प्रयोग करने लगता हूँ मै
कभी कभी खामोश साम
की तरह तुम्हे सुनना चाहता
हूँ और संगीत की तरह
समेटना चाहता हूँ
तुम्हे अपने संग्रह में
याद का भूगोल जब तुम्हारी
मुस्कुराहट और हसीन मौसम
के बिच के दुरिओं को नापने
लगता है तो ऑंखें सावन भादो बन
बिछ जाता है तुम्हारे गलिओं में,
और याद आता है तुम्हारे
गलिओं से गुजरना,
जब भी गुजरा तुम्हारे गलिओं
से मेरे धधकन ने आवाज़ लगाये,
न जाने तुम कैसे सुन लेती
थी धडकनों को और
आ जाती थी खिड़की पे ..
तुम्हारे साथ होना एक नशा था
शायद प्रकृति
भी उस
नशे बहक जाता होगा ...
तुम्हारी हाथो से जमीन पे खिंची
लकीरे आज भी मेरे दिल में
शिलालेख
की तरह अंकित
है...
तुम्हे बोलना बहुत अच्छा लगता था
और मेरा भी जिद्द था सुनने का...
सुनने की जिद में सायद बहुत
कुछ रह गया कहने को...
आज जब यथार्त के ठोकरों से
जब अतीत के चप्पल घिसने लगे है
तब थके हुए काया में ग़ज़ल बनके
उतरने लगती हो तुम..
बहुत अच्छा लगता है घास को
बिछौना और यादो को तकिया बनाके
एक हद तक तुम्हे सुनना
और जागते हुए में कभी कभी सो जाना
तुमारी यादो की गोद में...
(शंकर शाह)
Thursday, March 15, 2012
Aukat / औकात
कल हीं किसी ने मारा था धक्का मेरे आत्मा को...वक़्त के प्यार ने मुझे उड़ना
सिखा दिया था उड़ना असमान में...और मै उड़ने लगा था बिन डोर पतंग की
तरह..बागो में फूलो की जवानी भी कितनी अजीब होती है न...भूल जाते है जिस के
लिए दीवाने है वो छनभंगुर है.. सुख और दुःख में भी इतना हीं फासला है और
सायद हंसी और उदासी में भी....उड़ते हुए पतंग में डोर हो या न हो पर
गुरुत्वाकर्षण उसकी औकात जानता है...हाँ सायद इसीलिए एक बचपन के खामोश दर्द
ने मुझे मेरे औकात बता दिए...
(शंकर शाह)
Wednesday, February 15, 2012
SimaRekha / सीमारेखा
कुछ शब्दों को जब जोड़कर कविता बनी तो ख्याल आया, ये शब्द सिर्फ शब्द नहीं
थे..जिंदगी के अनुभव थे..जिंदगी के सफ़र थे...ये वो शब्द थे जो अनकही
थे...जो कहना चाहता था तुमसे, ज़माने से..पर कंकर की तरह दिल के शीपी में वो
कैद हो कर रह गए..कुछ सीमाओ तक समेत सकता था उन्हें, और सीमाओं का भी सायद
सीमा था जो सीमारेखा तोड़ कर वो बिखरपड़े कागज़ पर ..पढने वालो ने सिर्फ कला
समझा...और मैंने तो हर बार अपने दिल को खोलने की कोशिस की, इस डर से की
कही मेरे मौन मेरे लिए शूल न बना जाये...
(शंकर शाह)
Wednesday, February 1, 2012
बुद्धिजीविता के होड में अपने दिल को नीलाम कर दिया..सोया तो था मै अपने घर में, जागा तो पाया किसी ने मुझे गुलाम कर दिया....
शंकर शाह
शंकर शाह
Monday, January 30, 2012
Anshan KabTak / अनसन कब तक
मुर्दों के शहर में कुछ घायल छटपटा रहे है जिन्दा रहने की कोशिश में....एक
जद्दोजहद एक आखिरी कोशिस है जिन्दा रहने की...कोशिश, हाँ! कोशिश, जहाँ
इंसानियत रोटी बन गया है और लालच भूख, वहां अनसन कब तक,
(शंकर शाह)
Saturday, January 28, 2012
Parloukik / परलौकिक
एक आविष्कार था जो परलौकिक शब्दार्थ में सायद इंसान रहा होगा..या सायद
मानव..भगवान का एक बेहद खुबसूरत आविष्कार ...इसीलिए सायद वो अन्तरिक्ष अनंत
से निकलकर अपने आविष्कार के दिलो में बसने लगे..मैंने भी आविष्कार किया था
अपने नींद एक सपने को और सपने से एक जिंदगी पर यथार्त का भूख हर आविष्कार
को निगल गया..वो सपना था जिसका नियम सायद सच के परिधि पर चुम्बकतव आकर्षण न
रखता हो पर मानव, इन्सान और उसके दिल में बसने वाले भगवान, उफ़ सवाल और
जबाब न जाने कब तक पृथ्वी के दो धुरी की तरह दुरी बनाये रहेंगे ...
(शंकर शाह)
Saturday, January 21, 2012
Generation Gap / जेनेरेसन गेप
वो जिंदगी भर दुनिआदारी के अनुभवों से रेत चुन ज्ञान का मोती बनाते रहे....और हम जेनेरेसन गेप कह के उनके अनुभवों को ठुकराते रहे....
(शंकर शाह)
(शंकर शाह)
Tuesday, January 17, 2012
Sanskaro Ke Hath / संस्कारो के हाथ
बहुत
कुछ मौत जैसा अटूट सत्य है लेकिन मै नकारता हूँ ...इसीलिए नहीं की मै खुद
और खुद के दायरे मे बंधक हूँ...इसीलिए मेरे सच से बाण से किसी के झूठी
भावनाओ के घर मै आग न लग जाये...सोचता हूँ ये कैसी भावना...जहा सोच के बंद
कमरे में खुद के द्वारा फैसले और सही साबित किया जाता हो.. जहाँ सच को झूठ
और झूठ को सच मानता हो ..
दुर्भाग्य जन्मभूमि का है जहाँ इतिहास के अव्सेशो के चीख को घोंटा जाता है
और नया लिखा जाता है कुछ मस्तिक पटलो में एक नए ब्रिजरोपन की तरह..पेड़
हमने बोया पर काटने वाला हम नहीं होंगे..मेरा अन्दर आत्मा चीखता है और में
संस्कारो के हाथ उसका आवाज़ घोंट डालता हूँ...तुम खुश रहो...
(शंकर शाह)
(शंकर शाह)
Monday, December 5, 2011
DIARY / डायरी
खामोश होंठो ने बहुत बार तुमसे कुछ कहना चाहा..पर हर बार तुम्हारी झुकी
निगाहों ने बंचित रखा उसे कुछ कहने से...खामोश तुम भी रह गई...खामोश में भी
रह गया...अब जब तुम पलकों कैद से आजाद हो गई हो...तो यादें हर रोज धुन्दती
है तुम्हे...कभी सरसों के भूल में तो कभी गुलाब के सुगंध में...तुम्हारा
होने का एहसास अब मीठी यादें है और तुम्हारा न होना होंठो को तकलीफ देता
है...बहुत कहना है जो बाकि रह गया था...सायद कभी मिलो तो दिखाऊ, तुम्हारी
दी हुई गुलाब अब भी बात करता है और हररोज़ उतरता है कविता बनकर मेरे डायरी
में....
(शंकर शाह)
Monday, November 7, 2011
Wo Kayar Nahi Tha / वो कायर नहीं था
एक लाश पड़ी थी चौराहे पे
कुछ मासूम बिलख रहे थे
मैंने समझना चाहा
क्यों एक नदी, समुन्द्र
आने से पहले भटक गया,
मैं जानना चाहा क्यों
क्यों एक शरीर,
आत्मा से जीत गया,
चेहरे पे भूख की लकीर थी,
आँखों में उफ़ अजब सा दर्द था
सायद आंशु की जगह खून टपके होंगे
पैरो में पड़ा चप्पल, सुना रहा था
कहानी उसके दौड़ की,
जो किसी मैदान में दौड़ने के
निशान जैसा न था,
सायद दौड़ रहा था पेंसन के लिए,
ताकि राशन के दो दाने मिटा दे
भूख बिलखते परिवार के,
उसके बिधवा बहु के,
बिलखते उसके बच्चो के,
चेहरे पे एक तेज था,
सायद उसे उम्मीद रहा होगा,
जीतेगा वो, कोई तो पिघलेगा,
और मिल जायेगा उसे पेंसन,
उम्मीद रहा होगा सायद भगवान
पे भी, हाँ हो सकता है,
ऊपर वाला भी कुछ,
लाचारी के रात में
एक अच्छा सुबह छुपा रखा होगा,
या चलती लाशो में जान डाल देगा,
देख कर लगा वो कायर नहीं था
यूँ हिन् वो नहीं मरा होगा
पहले नोंचा गया होगा सरकारी
कौवों से, फिर बची हड्डियो को
बुद्धिजीवी कुत्तो ने नोचा होगा,
हर बलात्कार के बाद,
कुछ बची होगी जान उस शरीर में
गले की रेखा बता रही,
आखरी साँस उम्मीद से टुटा होगा,
(शंकर शाह)
कुछ मासूम बिलख रहे थे
मैंने समझना चाहा
क्यों एक नदी, समुन्द्र
आने से पहले भटक गया,
मैं जानना चाहा क्यों
क्यों एक शरीर,
आत्मा से जीत गया,
चेहरे पे भूख की लकीर थी,
आँखों में उफ़ अजब सा दर्द था
सायद आंशु की जगह खून टपके होंगे
पैरो में पड़ा चप्पल, सुना रहा था
कहानी उसके दौड़ की,
जो किसी मैदान में दौड़ने के
निशान जैसा न था,
सायद दौड़ रहा था पेंसन के लिए,
ताकि राशन के दो दाने मिटा दे
भूख बिलखते परिवार के,
उसके बिधवा बहु के,
बिलखते उसके बच्चो के,
चेहरे पे एक तेज था,
सायद उसे उम्मीद रहा होगा,
जीतेगा वो, कोई तो पिघलेगा,
और मिल जायेगा उसे पेंसन,
उम्मीद रहा होगा सायद भगवान
पे भी, हाँ हो सकता है,
ऊपर वाला भी कुछ,
लाचारी के रात में
एक अच्छा सुबह छुपा रखा होगा,
या चलती लाशो में जान डाल देगा,
देख कर लगा वो कायर नहीं था
यूँ हिन् वो नहीं मरा होगा
पहले नोंचा गया होगा सरकारी
कौवों से, फिर बची हड्डियो को
बुद्धिजीवी कुत्तो ने नोचा होगा,
हर बलात्कार के बाद,
कुछ बची होगी जान उस शरीर में
गले की रेखा बता रही,
आखरी साँस उम्मीद से टुटा होगा,
(शंकर शाह)
Tuesday, October 25, 2011
Haapy Diwali / दिवाली मुबारक
आज सुबह के धुप में आने वाले कल के लिए हजारो दीपक जगमगा रहे है आँखों
में...उम्मीद से रौशनी और आज को समर्पित हम कल के लिए पटाखे है...दिवाली के
लिए हम राम तो नहीं जो लोटेंगे घर...हम एक सफ़र बनके निकलेंगे जो रामराज्य
ला सके..एक प्रण और दृढ़ता के साथ दिवाली हम सब को मुबारक हो....
(शंकर शाह)
(शंकर शाह)
Saturday, October 15, 2011
Kayro Ke Basti / कायरो के बस्ती
कायरो के बस्ती
में एक भीड़ देखा
नोच रहे है गिद्धों की
तरह अपने आत्मा को
और विचार आइने में
खूबसूरती धुंध रहे है
बहुत कुछ है करना चाहिए
पर कुछ हिन् बस में है
की जो वो कर सकते है
जो की दुसरे की आंच पे
अपना रोटी सेंकना है
कौन कहता है यहाँ
राजनीति सिर्फ नेता करते है
इस गाँव के हर चेहरे पे
लोमरी मुखौटा लगा बैठा है
कायरता को बटुआ बना
पीछे के जेब में दबा रखा है
नोच रहे है खुद को
जानते है ये
पर बहानो के कवच से
खुद को बचाए रखा है
धुप में पैर सेंकते
हिन् नहीं ये बंधू
और कहते है आज
चांदनी में आग है
(शंकर शाह)
में एक भीड़ देखा
नोच रहे है गिद्धों की
तरह अपने आत्मा को
और विचार आइने में
खूबसूरती धुंध रहे है
बहुत कुछ है करना चाहिए
पर कुछ हिन् बस में है
की जो वो कर सकते है
जो की दुसरे की आंच पे
अपना रोटी सेंकना है
कौन कहता है यहाँ
राजनीति सिर्फ नेता करते है
इस गाँव के हर चेहरे पे
लोमरी मुखौटा लगा बैठा है
कायरता को बटुआ बना
पीछे के जेब में दबा रखा है
नोच रहे है खुद को
जानते है ये
पर बहानो के कवच से
खुद को बचाए रखा है
धुप में पैर सेंकते
हिन् नहीं ये बंधू
और कहते है आज
चांदनी में आग है
(शंकर शाह)
Tuesday, October 4, 2011
Nam Ankho Se / नम आँखों से
कुछ पल दिमाग के कैद से निकल के...फ़ैल जाते है आँखों के अंतरिक्ष में...कभी
ये अन्तरिक्ष के आकाशगंगा से कैद हुए तारे है ...पर अब ये मस्तिक के किसी
पेटी में कैद हो गए है...अब जब भी खोलता हूँ बंद पेटी और देखता हूँ
इन्हें..नम आँखों से एक मुस्कान होता है होंठो पर
(शंकर शाह)
Saturday, September 24, 2011
Na Jane Kyo / न जाने क्यों ?
एक लाश तंगी थी
चौराहे के नीम से
रस्सी उसे समेत ,
रही थी खुद में
जैसे कृष्ण सुदामा
का मिलन हो रहा था,
न जाने क्यों
कृष्ण इतना इतना
दीवाना हो रहा था
न जाने क्यों
सत: आंखे अश्रुविहीन थे
और कुछ आंखे
क्यों हुआ सोच रहा था
हाँ ! सवाल तो था
इस बार पानी अच्छी हुई थी
सुखा का मार न पड़ा था
कर्जे के बिज से, इस बार
फसल अच्छा हुआ था,
कोई बीमारी भी तो न थी उसे
और सरकार के आँकरो से
वो गरीब भी तो न था,
क्योंकी पचास से ज्यादा तो
उसके अम्मा के दवा में जाता था,
हाँ बिटिया भी तो
व्याह लायक हो रही थी
शायद सेल्समेन सा
दौड़ता दौड़ता थक गया था ,
नहीं! अभी कैसे थक
सकता था वो
अभी अभी हीं तो
उसके बच्चे का शहर
के स्कूल में
दाखिला हुआ था,
कल सुना था मैंने उसे
अगले साल का फसल
कर्जे के आधे दामो में
बिका था,
सरकार ने तो !
लगाई थी दुकान
फीर न जाने क्यों
वो नेताजी के
हाँ सवाल तो था
न जाने क्यों ?
(शंकर शाह)
चौराहे के नीम से
रस्सी उसे समेत ,
रही थी खुद में
जैसे कृष्ण सुदामा
का मिलन हो रहा था,
न जाने क्यों
कृष्ण इतना इतना
दीवाना हो रहा था
न जाने क्यों
सत: आंखे अश्रुविहीन थे
और कुछ आंखे
क्यों हुआ सोच रहा था
हाँ ! सवाल तो था
इस बार पानी अच्छी हुई थी
सुखा का मार न पड़ा था
कर्जे के बिज से, इस बार
फसल अच्छा हुआ था,
कोई बीमारी भी तो न थी उसे
और सरकार के आँकरो से
वो गरीब भी तो न था,
क्योंकी पचास से ज्यादा तो
उसके अम्मा के दवा में जाता था,
हाँ बिटिया भी तो
व्याह लायक हो रही थी
शायद सेल्समेन सा
दौड़ता दौड़ता थक गया था ,
नहीं! अभी कैसे थक
सकता था वो
अभी अभी हीं तो
उसके बच्चे का शहर
के स्कूल में
दाखिला हुआ था,
कल सुना था मैंने उसे
अगले साल का फसल
कर्जे के आधे दामो में
बिका था,
सरकार ने तो !
लगाई थी दुकान
फीर न जाने क्यों
वो नेताजी के
भतीजे को फसल बेचा !
हाँ सवाल तो था
न जाने क्यों ?
(शंकर शाह)
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