सपनो में जागते खुद से भागते हुए...इंसान का एक प्रतिविम्ब बन चूका हूँ...चलते सूरज के साथ दौड़ने की वजाय घर में, ऑफिस के ए/सी में बैठना अच्छा लगता है...धरती से सूरज का जो मिलन होता था...मुहाने का तालाब मेरे कागज़ का नाँव.. अब कहा, सब वक्तब्य रूपी व्यस्ता के कुम्भ में खो रहा है...यादे भी तो अब माँ का चेहरा बन चुकी है...एक चेहरा राह तकते किसी का...
(शंकर शाह)
nahut bada satya... aaj ka dour kuchh jyada hi busy ho gaya hai...
ReplyDeleteSukriya Pooja Ji....:)
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