बाज़ार में मेरा भी एक दुकान था...बोली भी लग रहे थे और में बेचने के लिए मैंने विचारो को रख दिया...बाज़ार है!भावनाओ का वहां क्या जरूरत...जैसा खरीरदार वैसा विचार...पर कुछ ऐसे मौके आये जब खरीददार के जगह पे विक्रेता मिले..जो जीवन के भूख में कामधेनु थे...मैंने सोचा कुछ लेलु उनसे ताकि संस्कार के फेहरे में कुछ ताजगी भर पाउ...पर जितनी बार दिल के जेब खोला, देखा तो खाली था!!!
(शंकर शाह)