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MERI KAHANI

Monday, December 5, 2011

DIARY / डायरी

खामोश होंठो ने बहुत बार तुमसे कुछ कहना चाहा..पर हर बार तुम्हारी झुकी निगाहों ने बंचित रखा उसे कुछ कहने से...खामोश तुम भी रह गई...खामोश में भी रह गया...अब जब तुम पलकों कैद से आजाद हो गई हो...तो यादें हर रोज धुन्दती है तुम्हे...कभी सरसों के भूल में तो कभी गुलाब के सुगंध में...तुम्हारा होने का एहसास अब मीठी यादें है और तुम्हारा न होना होंठो को तकलीफ देता है...बहुत कहना है जो बाकि रह गया था...सायद कभी मिलो तो दिखाऊ, तुम्हारी दी हुई गुलाब अब भी बात करता है और हररोज़ उतरता है कविता बनकर मेरे डायरी में....

(शंकर शाह)

Monday, November 7, 2011

Wo Kayar Nahi Tha / वो कायर नहीं था

एक लाश पड़ी थी चौराहे पे
कुछ मासूम बिलख रहे थे
मैंने समझना चाहा
क्यों एक नदी, समुन्द्र
आने से पहले भटक गया,
मैं जानना चाहा क्यों
क्यों एक शरीर,
आत्मा से जीत गया,

चेहरे पे भूख की लकीर थी,

आँखों में उफ़ अजब सा दर्द था
सायद आंशु की जगह खून टपके होंगे
पैरो में पड़ा चप्पल, सुना रहा था
कहानी उसके दौड़ की,
जो किसी मैदान में दौड़ने के
निशान जैसा न था,
सायद दौड़ रहा था पेंसन के लिए,
ताकि राशन के दो दाने मिटा दे
भूख बिलखते परिवार के,
उसके बिधवा बहु के,
बिलखते उसके बच्चो के,
चेहरे पे एक तेज था,
सायद उसे उम्मीद रहा होगा,
जीतेगा वो, कोई तो पिघलेगा,
और मिल जायेगा उसे पेंसन,
उम्मीद रहा होगा सायद भगवान
पे भी, हाँ हो सकता है,
ऊपर वाला भी कुछ,
लाचारी के रात में
एक अच्छा सुबह छुपा रखा होगा,
या चलती लाशो में  जान डाल देगा,

देख कर लगा वो कायर नहीं था

यूँ हिन् वो नहीं मरा होगा
पहले नोंचा गया होगा सरकारी 
कौवों से, फिर  बची हड्डियो को
बुद्धिजीवी कुत्तो ने नोचा होगा,

हर बलात्कार के बाद,

कुछ बची होगी जान उस शरीर में
गले की रेखा बता रही,
आखरी साँस उम्मीद से टुटा होगा,


(शंकर शाह)






Tuesday, October 25, 2011

Haapy Diwali / दिवाली मुबारक

आज सुबह के धुप में आने वाले कल के लिए हजारो दीपक जगमगा रहे है आँखों में...उम्मीद से रौशनी और आज को समर्पित हम कल के लिए पटाखे है...दिवाली के लिए हम राम तो नहीं जो लोटेंगे घर...हम एक सफ़र बनके निकलेंगे जो रामराज्य ला सके..एक प्रण और दृढ़ता के साथ दिवाली हम सब को मुबारक हो....

(शंकर शाह)

Saturday, October 15, 2011

Kayro Ke Basti / कायरो के बस्ती

कायरो के बस्ती
में एक भीड़ देखा
नोच रहे है गिद्धों की
तरह अपने आत्मा को
और विचार आइने में
खूबसूरती धुंध रहे है

बहुत कुछ है करना चाहिए

पर कुछ हिन् बस में है
की जो वो कर सकते है
जो की दुसरे की आंच पे
अपना रोटी सेंकना है

कौन कहता है यहाँ

राजनीति सिर्फ नेता करते है
इस गाँव के हर चेहरे पे
लोमरी मुखौटा लगा बैठा है
कायरता को बटुआ बना
पीछे के जेब में दबा रखा है

नोच रहे है खुद को

जानते है ये
पर बहानो के कवच से
खुद को बचाए रखा है

धुप में पैर सेंकते

हिन् नहीं ये बंधू
और कहते है आज
चांदनी में आग है


(शंकर शाह)

Tuesday, October 4, 2011

Nam Ankho Se / नम आँखों से

कुछ पल दिमाग के कैद से निकल के...फ़ैल जाते है आँखों के अंतरिक्ष में...कभी ये अन्तरिक्ष के आकाशगंगा से कैद हुए तारे है ...पर अब ये मस्तिक के किसी पेटी में कैद हो गए है...अब जब भी खोलता हूँ बंद पेटी और  देखता हूँ इन्हें..नम आँखों से एक मुस्कान होता है होंठो पर

(शंकर शाह) 

Saturday, September 24, 2011

Na Jane Kyo / न जाने क्यों ?

एक लाश तंगी थी
चौराहे के नीम से
रस्सी उसे समेत ,
रही थी खुद में
जैसे कृष्ण सुदामा
का मिलन हो रहा था,
न जाने क्यों
कृष्ण इतना इतना
दीवाना हो रहा था
न जाने क्यों

सत: आंखे अश्रुविहीन थे

और कुछ आंखे
क्यों हुआ सोच रहा था
हाँ ! सवाल तो था
इस बार पानी अच्छी हुई थी
सुखा का मार न पड़ा था 
कर्जे के बिज से, इस
बार
फसल अच्छा हुआ था,
कोई बीमारी भी तो न थी उसे
और सरकार के आँकरो से
वो गरीब भी तो न था,
क्योंकी पचास से ज्यादा तो
उसके अम्मा के दवा में जाता था,

हाँ बिटिया भी तो

व्याह
लायक हो रही थी
शायद सेल्समेन सा
दौड़ता दौड़ता थक गया था ,
नहीं! अभी कैसे थक
सकता था वो
अभी अभी हीं तो
उसके बच्चे का शहर  
के स्कूल में
दाखिला हुआ था,

कल सुना था मैंने उसे
अगले साल का फसल
कर्जे के आधे दामो में
बिका था,
सरकार ने तो !
लगाई थी दुकान
फीर न जाने क्यों
वो नेताजी के

भतीजे को फसल बेचा !

हाँ सवाल तो था
न जाने क्यों ?


(शंकर शाह)




 

Tuesday, September 20, 2011

TimTimate Tare / टिमटिमाते तारे

लडखडाते कदम से ख्वाहिसों के तितली कभी आंगन के उड़ा करती थी...अभिलाषा के पैर पंख लगा के उरते थे, नन्ही सी हथेली में इन्द्रधनुषी रंग को कैद करने...उचल कूद के साथ कभी कई सपने किसी आँखों के गर्भ में पलते थे.. टिमटिमाते तारे अंधियार सपनो में लालटेन होता था किसी का...में जागता हूँ अभी नींद से डरकर...जब से देखा है मेरे प्रतिरूप में, तितलिओं के पीछे भागते कदम से मेरे बच्चे का...

(शंकर शाह)

Wednesday, September 7, 2011

मौत के दहलीज पे जिन्दा है एक लाश..चीरहरित बेबसी.. अब कफ़न भी उसका बाज़ार में है..  

(आज के दिल्ली कोर्ट विष्फोट पर माँ भारती का दर्द कुछ ऐसा हीं होगा )


(शंकर शाह)

Friday, September 2, 2011

Bahao Aur Thahrao / बहाव और ठहराव

भीग रहा हूँ पर बरसात से नहीं...आत्मा के बूंदों से ...दिमाग की छतरी बचने का कोसिस कर रहा है...आत्ममंथन का मेघ बहुत बलवान है...मै बचना चाहता हूँ...पर डरता हूँ बहाव और ठहराव के बिच में खो न जाऊ...मेरा अस्तित्व, मानवता और मेरा जीवन .. बरसात और छतरी के बिच में धमासान का मुखदर्शक है...

(शंकर शाह)

Friday, August 26, 2011

अभी वक़्त है अपनी सोती सोच में आत्मा को जीवित होने दो / Abhi Waqt Hai

कही आँशु पे खिलते राजनीती कमल.. तो कही मुर्दों के बलात्कार पे..हर हाल पे कुछ अपने रोटिओं के सेकते.. और बहुत है जो लकड़ी की तरह जल रहे...कुछ खामोश चेहरे कई बोलते बुतों में जान डालना चाहते है..क्रांति की स्याही से लिखी हर किताब चिल्ला चिल्ला कर कह रही है.."में दिनों का नहीं दसको, सदियों का घुटता हुआ..काटा गया, लुटा हुआ दिल का शोर हूँ...हर बार खामोश आँहो को समेत कर ज्वाला बनता और हर बार, बार बार खुद को दोहराऊंगा..अभी वक़्त है अपनी सोती सोच में आत्मा को जीवित होने दो...
(शंकर शाह)

Tuesday, August 23, 2011

मिलता नहीं मौका बार बार विखर जाने का... बनके राख देश पर...इतिहास के वीर है वो जिनपे लिपटा कफ़न इन्कलाब का...

Monday, July 11, 2011

Gungunati Nahi Hai / गुनगुनाती नहीं है

बर्षो बाद आज गुनगुनाने का मन हुआ, मौसम के मिजाज के अनुसार...भीगना चाहा पहली बारिश के बूंदों से पर बीमार पड़ जाने का ख्याल आया, फिर बीमारी से घर बैठ जाने का फिर एक दिन का छुट्टी, मन न जाने एक ख्याल के सवाल से कितने हिसाब कर डाले ...और हिसाबो के गिनती में बारिश थम गई..बहुत कोशिश किया की बारिश के बूंदों के गुनगुननाहट में अपने सुर से एक संगीत गाऊं.. पर वो सुर वो संगीत नहीं आ पाया जो बचपन में गले से होते पैरो से झलक जाया करता था और अब बारिश नाचती , गुनगुनाती नहीं है...शायद मै बहुत आगे निकल आया हूँ जहा से बचपन के गलियारों बहुत संकरे होने लगे हैं....

शंकर शाह

Thursday, May 12, 2011

Atma Se Utar Kar / आत्मा से उतर कर

कई बार में आत्मा से उतर कर जंगल में गया..कमाल देखिये आत्मा से उतर कर जितनी बार सफ़र किया...मैंने जंगल के राजा के तरह विचरण किया...पर जब भी लोटा उस सफ़र से वो जिंदगी के किताब एक काला अक्षर के रूप में अंकित हो गए...जब भी यादों के पन्ने पलटता हूँ...एक दर्द भरा चुभन के अलावा कुछ नहीं मिलता..

(शंकर शाह) 

Saturday, May 7, 2011

Mere galati Ke Paksh me / मेरे गलती के पक्ष में

मै कई बार गलतियाँ कर देता था बचपन में जो लाजिमी है हर बच्चे करते है...पर हर बार गलती के बाद महसूस होता था की गलत है पर दिमाग के कोने से एक जबाब तैयार हो जाता था मेरे गलती के पक्ष में....मै सोचता था ऐसा क्यों है...पर सिर्फ ये मेरे साथ नहीं था हर किसी के जिंदगी के वाक्या के साथ ये जुदा हुआ है मेरे दोस्तों के साथ भी ऐसा था...और गलतिओं का सिलसिला अपरोक्ष रूप में चलता रहा...लेकिन मजे की बात यह है की जिस गलती पे पापा का मार खाया आज तक उस गलती दोहरा नहीं पाया...किसी चीज को हृदय से स्वीकार करने के लिए जरूरी है उस चीज के प्रति श्रधा और उसके विप्ररित न जाने का डर... 

(शंकर शाह) 

Sunday, May 1, 2011

जैसे किसी भी जन्म का प्रमाणपत्र मरण उसी तरह हमारे पतन के पीछे हमारा अज्ञानरूपी ज्ञान छुपा हुआ है...हम बुद्धिजीविता के ढोंग में खुद के लालच को दुसरे पे थोपते है...एक नम्र निवेदन " अगर आप ज्ञानी है तो ज्ञान का सद्य्प्योग उपयोग कीजिये...आजीवन ज्ञान को प्राप्त करना और ज्ञान को बांटना दो आदमियो का काम है १. शीक्क्षक  २. बेकार

(शंकर शाह)