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MERI KAHANI

Friday, August 26, 2011

अभी वक़्त है अपनी सोती सोच में आत्मा को जीवित होने दो / Abhi Waqt Hai

कही आँशु पे खिलते राजनीती कमल.. तो कही मुर्दों के बलात्कार पे..हर हाल पे कुछ अपने रोटिओं के सेकते.. और बहुत है जो लकड़ी की तरह जल रहे...कुछ खामोश चेहरे कई बोलते बुतों में जान डालना चाहते है..क्रांति की स्याही से लिखी हर किताब चिल्ला चिल्ला कर कह रही है.."में दिनों का नहीं दसको, सदियों का घुटता हुआ..काटा गया, लुटा हुआ दिल का शोर हूँ...हर बार खामोश आँहो को समेत कर ज्वाला बनता और हर बार, बार बार खुद को दोहराऊंगा..अभी वक़्त है अपनी सोती सोच में आत्मा को जीवित होने दो...
(शंकर शाह)

Tuesday, August 23, 2011

मिलता नहीं मौका बार बार विखर जाने का... बनके राख देश पर...इतिहास के वीर है वो जिनपे लिपटा कफ़न इन्कलाब का...

Monday, July 11, 2011

Gungunati Nahi Hai / गुनगुनाती नहीं है

बर्षो बाद आज गुनगुनाने का मन हुआ, मौसम के मिजाज के अनुसार...भीगना चाहा पहली बारिश के बूंदों से पर बीमार पड़ जाने का ख्याल आया, फिर बीमारी से घर बैठ जाने का फिर एक दिन का छुट्टी, मन न जाने एक ख्याल के सवाल से कितने हिसाब कर डाले ...और हिसाबो के गिनती में बारिश थम गई..बहुत कोशिश किया की बारिश के बूंदों के गुनगुननाहट में अपने सुर से एक संगीत गाऊं.. पर वो सुर वो संगीत नहीं आ पाया जो बचपन में गले से होते पैरो से झलक जाया करता था और अब बारिश नाचती , गुनगुनाती नहीं है...शायद मै बहुत आगे निकल आया हूँ जहा से बचपन के गलियारों बहुत संकरे होने लगे हैं....

शंकर शाह

Thursday, May 12, 2011

Atma Se Utar Kar / आत्मा से उतर कर

कई बार में आत्मा से उतर कर जंगल में गया..कमाल देखिये आत्मा से उतर कर जितनी बार सफ़र किया...मैंने जंगल के राजा के तरह विचरण किया...पर जब भी लोटा उस सफ़र से वो जिंदगी के किताब एक काला अक्षर के रूप में अंकित हो गए...जब भी यादों के पन्ने पलटता हूँ...एक दर्द भरा चुभन के अलावा कुछ नहीं मिलता..

(शंकर शाह) 

Saturday, May 7, 2011

Mere galati Ke Paksh me / मेरे गलती के पक्ष में

मै कई बार गलतियाँ कर देता था बचपन में जो लाजिमी है हर बच्चे करते है...पर हर बार गलती के बाद महसूस होता था की गलत है पर दिमाग के कोने से एक जबाब तैयार हो जाता था मेरे गलती के पक्ष में....मै सोचता था ऐसा क्यों है...पर सिर्फ ये मेरे साथ नहीं था हर किसी के जिंदगी के वाक्या के साथ ये जुदा हुआ है मेरे दोस्तों के साथ भी ऐसा था...और गलतिओं का सिलसिला अपरोक्ष रूप में चलता रहा...लेकिन मजे की बात यह है की जिस गलती पे पापा का मार खाया आज तक उस गलती दोहरा नहीं पाया...किसी चीज को हृदय से स्वीकार करने के लिए जरूरी है उस चीज के प्रति श्रधा और उसके विप्ररित न जाने का डर... 

(शंकर शाह) 

Sunday, May 1, 2011

जैसे किसी भी जन्म का प्रमाणपत्र मरण उसी तरह हमारे पतन के पीछे हमारा अज्ञानरूपी ज्ञान छुपा हुआ है...हम बुद्धिजीविता के ढोंग में खुद के लालच को दुसरे पे थोपते है...एक नम्र निवेदन " अगर आप ज्ञानी है तो ज्ञान का सद्य्प्योग उपयोग कीजिये...आजीवन ज्ञान को प्राप्त करना और ज्ञान को बांटना दो आदमियो का काम है १. शीक्क्षक  २. बेकार

(शंकर शाह)

Sunday, April 24, 2011

Bazaar / बाज़ार


बाज़ार में मेरा भी एक दुकान था...बोली भी लग रहे थे और में बेचने के लिए मैंने विचारो को रख दिया...बाज़ार है!भावनाओ का वहां क्या जरूरत...जैसा खरीरदार वैसा विचार...पर कुछ ऐसे मौके आये जब खरीददार के जगह पे विक्रेता मिले..जो जीवन के भूख में कामधेनु थे...मैंने सोचा कुछ लेलु उनसे ताकि संस्कार के फेहरे में कुछ ताजगी भर पाउ...पर जितनी बार दिल के जेब खोला, देखा तो खाली था!!!

(शंकर शाह)

Friday, April 15, 2011

बहुत दिनों के बाद सोचा चलो आज देखे दिन से रात का मिलन...जो कभी हमारे दिनचर्या का हिस्सा हुआ करता था...साथियों के साथ खेल का एक हिस्सा हुआ करता था वो अब परीक्षा के पल की तरह थकाने लगा है...जाने और नजाने कई फसलो को तय करने के बाद महसूस होता है की...लौटना चाहिए नीले चादर के निचे घासों से छुपनछुपाई खेलने... उन हंसो को अपना बनाने का फिर से मन करता है जो थके हारे घर लौटते वक़्त हमसे बतिया लिया करते थे...पंडित जी के चेहरे बदल गए है पर अब भी वहां बच्चो मेला लग जाता है...सोचता हूँ फिर से हम उस मेले में सामिल हो ले...

(शंकर शाह)  

Monday, March 28, 2011

Sapno Ki Pari / सपनो की परी

चंदामामा के थपेड़ो के साथ हवाओ में घुलने लगता है एक खुसबू...घर की खिड़कीयां बताने लगाती है आहट किसी के होने का...किसी की खामोश हंसी दिल के धडकनों में लाल गुलाब बनने लगता है...और रात ओढा जाता है एक चादर खामोसी से मीठे स्वप्नों का..सपनो की परी हररोज चली आती है एक नए रूप में ...पर हकीकत का दिन हर बार मायुश कर देता है...सुना है परियां होती है...पर सायद कलियुग की वजह से आती नहीं जमीन पर ....


(शंकर शाह)

Wednesday, March 23, 2011

Sochta Hoon Wo Pal Kaisa Raha Hoga / सोचता हूँ वो पल कैसा रहा होगा

सोचता हूँ वो पल भी कैसा रहा होगा
जब औरत बच्चे, बूढ़े, जवान
हर एक ने दिल का सुना होगा 

और जुल्म नहीं का विचार 
जब हतौड़ा बना होगा !!
 

सोचता हूँ वो पल भी कैसा होगा
जब मै, तुम, संप्रदाय विभिन्ताओ 

का आवाज होगा जब एक सुर 
सबका और एक तान रहा होगा !!
 

सोचता हूँ वो पल कैसा रहा होगा 
जीने का चाहत रही होगी 
मर जाने का डर रहा होगा 
जब अपने से ऊपर देश रहा होगा !!

सोचता हूँ वो पल कैसा रहा होगा
भूख की कहा फिकर थी उनको  
न उनको किसी से बिछारने का डर रहा होगा 
मौत हीं नींद थी फिर कहा वो लड़ने डरा होगा !!

सोचता हूँ वो पल कैसा रहा होगा
चिताओं के सेज पे जब अपनों का
आकार जला होगा, फिर भी न रोक सका
कदम वो अभिमान कैसा रहा होगा

सोचता हूँ वो पल कैसा रहा होगा !!
सोचता हूँ मेरे लालसा भरी बहकते 
कदम देख, उन सब वीर वीरांगनाओं का 
कितना दिल जला होगा, जब मिलेंगे मुझसे 
मेरे पास उनको कहने को क्या होगा, 
सोचता हूँ वो पल कैसा रहा होगा  

शहीद दिवस पे भगत सिंह, राजगुरु और शहीद सुखदेव को कोटि कोटि नमन!!!!!

(शंकर शाह) 
 

Saturday, March 19, 2011

दुनियादारी के साथ भागते कदम और छुट रहे अपनों से हम...हम से मै हो रहा अपने आप के भीतर जरूरी हो जाता है एक और होलिका दहन की....और दहन के बाद जश्न...मै को जलाकर कोशिस करूँगा की बुत बन रहे "हम" को फिर से अपने अन्दर ला सकू....ताकि धरती सी हाथ मै चाँद का कटोरा इन्द्रधनुषी रंग मुझपे बिखेर सके.. ये बिना सोचे हुए की सामने वाले की रंग न बदल जाये....
"होली के शुभअवसर पर आप सभी को परिवार सहित ढेरो सुभकामनाये"....
 
 
 
(शंकर शाह)

Saturday, March 5, 2011

Mere Yaado Ko Kaise Mitaogi / मेरे यादो को कैसे मिटाओगी

चाहे जला दो तस्वीर मेरा, चाहे मेरा ख़त जला दो,
पर ये तो बताओ, मेरे यादो को कैसे मिटाओगी,
तुम्हारे दिल के किसी कोने में मेरा भी एक घर है 
अब बताओ मेरी जान उसे कैसे जलाओगी.....

(शंकर शाह) 

Wednesday, March 2, 2011

Mai Kahan Tak Jinda Hoon / मै कहा तक जिन्दा हूँ

कल से आज के बिच में बहुत कुछ बदलते देखा...ज़माने बदलने के साथ हम बदल रहे है या हमारे बदलने जमाना बदल रहा है? बदलाव है और क्यों मालूम है, पर सोच पर एक रंगीन पट्टी है बहाने का..कल जहाँ मंदिरों में भगवान बसते थे अब मंदिरों के खुले प्रांगन से निकल दिल के संकरा गलियो में बसने लगे है...और पूर्वजो का देवघर छोटे हो रहे कुतुम्बन सा, बक्से में बंद होने लगे है..मेरे लिए मायने यह है की ,मै कहा तक जिन्दा हूँ जिदगी के साथ बदलते समय और इंसान के बिच में ..महाशिवरात्रि के अवसर पर सभी दोस्तों को शुभकामनाये
(
शंकर शाह)

Wednesday, February 23, 2011

Galib Khyal Jo Achha hai / " ग़ालिब " ख्याल जो अच्छा है

कई बार सवाल होता है ..जो जी रहे है क्या येही जिंदगी है ..सवाल खुद से बहुत सारे सवाल करता रहता है ..और जबाब छुपान छुपाई खेलता है भूलभुलैया रूपी जबाब मे..जो भी हो हम भी एक मोड़ पर फैसला कर लेते है ..जो पल है जिओ...आखिर खुद को धोखा देने का "ग़ालिब"  ख्याल जो अच्छा है..

Monday, February 14, 2011

Darpan Dikha Raha / दर्पण दिखा रहा

लम्हे यूँ भागते रहे जैसे उसके पर निकल आये हो...बचपन कब ढल के जवानी हुआ और जवानी धीरे धीरे बुढ़ापे की और...बंद दरवाजा करके बहुत बार सोचता हूँ बुढ़ापे की आहट मेरे दरवाजे पर न हो...अब तो घर के बुजुर्ग भी तो नहीं रहते मेरे साथ...फैसलों के फासले में जवानी बहुत बड़ा फासला बना चूका है...अब तरेरती आंखे बच्चो की दर्पण दिखा रहा है..और दीवाल में टंगे अपने ठहाके लगा रहे है..

(शंकर शाह)