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MERI KAHANI

Saturday, November 27, 2010

Khamosh Chikh / खामोश चीख

सड़क पर दूर भीड़ लगी थी


एक जनसमूह का जैसे मेला लगा था


रात गहरी थी सूझ नहीं रहा था


पर लगा कुछ तो जरूर माजरा था




कौतहुलवस् मै भी भीड़ का हिस्सा


देखा तो एक लड़का लड़खड़ा रहा था


फिर पूछा, इस लड़के को देखने भीड़


देखा तो जनसैलाब मुस्कुरा रहा था




कुछ तुतलाहट वाली लब्ज में


कुछ इशारो मै वह भीड़ को कुछ समझा रहा था


मैंने सोचा होगा नसे मै धुत


इसीलिए शायद बडबडा रहा था




चेहरे पर क्षमा की बिनती


आंख से आंशू छलक रहा था


पर बंद लब था


शिथिल काया से कुछ समझा रहा था




कुछ समाज सुधारक थे चेहरे वहां


जिन्हें वो खामोश चीख से कुछ समझा रहा था


पर वो समाज सुधारक चेहरे


कार्यकर्ताओ के रूप में उसपे लात, घूंसे, थप्पर लगा रहा था




खड़े भीड़ का क्या, कोई सही,


कोई इस क्रिया को गलत बता रहा था


किसी किसी के लबो पे उफ़ था


पर सब बिना टिकेट के शो का मजा ले रहा था




मै एक सरीफ इज्जतदार नागरिक


मेरा रुकना नागवार था


मेरे मन ने गाली दी जनसमूह को


और मै वहां से निकल गया




रात बीती बात बीती के तर्ज पे


सुबह चाय की चुस्की लगा रहा था


ब्रेकिंग न्यूज़ देखा तो


"चैनल" समाज का चेहरा दिखा रहा था




भूखे मरता एक आदमी


समाज खड़ा तमाशा देख रहा था


हर चैनल पर एक हीं समाचार


इंसानियत, नेता कहा खो गया




चैनल बदला हर चैनल पर


एक सा हीं न्यूज़ आ रहा था


एंकरों को गौड़ से देखा तो ख्याल आया


ये सब तो वोही कार्यकर्ता है जो बीती रात बहुत प्यार जता रहा था..




(शंकर शाह)

Tuesday, November 23, 2010

रात से दिन के फासले में.. दुनिआदारी के भागम भाग में हम खिलौने बन रह गए....वो दिन से रात और रात से दिन बनते रहे...वक़्त बदलता रहा और वो भी बदलते रहे...चेहरे के पीछे चेहरा और चेहरे को ऊपर चेहरा...चेहरे बदलते रहे और वो चेहरे के साथ कहने को खुद को बदलते रहे...क़त्ल करने को उनके हाथ में देखो आज मानवबोम्ब है... और हम अपने घर में चूल्हा चौका के उलझनों में हीं उलझे रहे....

(शंकर शाह)

Saturday, November 20, 2010

रोज चाँद उतरता है मेरे ख्यालो के रात से उतरकर मेरे आँखों के आंगन मे.. सूरज के रौशनी से हीरे सा चमकता ओस...पर दोनों आंख खोलो तो..........:)

Thursday, November 11, 2010

जिंदगी सालो का गणित नहीं है...पलो का जीना है...पलो को जोड़ जोड़ के अर्धसतक और सतक पूरा होता है...जैसे बूँद बूँद से सागर...मुझे सागर सा नहीं बनना..मुझे नदियो उस तट सा बनना है ताकि मै अनुभूति कर कर सकू नदियो के शीतलता,मधुता और उनके त्याग की जो प्रयास है.....

शंकर शाह

Tuesday, November 9, 2010

Atmamanthan / आत्ममंथन

जब आत्ममंथन करते है...बहुत कुछ बदलने लगता है..ज्वारभाटा के लहरों की तरह पुराना कुछ तट तोड़ के नया कुछ छोड़ना...जिद के तूफ़ान में मिटटी से बदलते बदलते पत्थर तो बन तो सकते है...पर अन्दर ज्वालामुखी खामोश तो नहीं है...घर नया हो तो पुराना पता मिटाया नहीं जाता...दोस्तों के कदम रिस्तो की चिट्ठी...पहले पुराने पते पर हीं आती है.....




(शंकर शाह)

Wednesday, October 20, 2010

Ek Chehra / एक चेहरा

सपनो में जागते खुद से भागते हुए...इंसान का एक प्रतिविम्ब बन चूका हूँ...चलते सूरज के साथ दौड़ने की वजाय घर में, ऑफिस के ए/सी में बैठना अच्छा लगता है...धरती से सूरज का जो मिलन होता था...मुहाने का तालाब मेरे कागज़ का नाँव.. अब कहा, सब वक्तब्य रूपी व्यस्ता के कुम्भ में खो रहा है...यादे भी तो अब माँ का चेहरा बन चुकी है...एक चेहरा राह तकते किसी का...

(शंकर शाह)

Monday, October 18, 2010

परेशानियो के उलझन मै उलझते जाते है...सपनो में जैसे भयानक कोई दौड़ा रहा है...परेशानी सपनो के भूत की तरह है.. आंख जब तक बंद तैराकी नहीं जानते हुए भी नदी के बिच में और आंख खुली तो...खुद के भाग के जिंदगी नहीं है...घर बदलने से अगर दुनिया बदल जाती हालात बदल जाते...


(शंकर शाह)
अच्छाई पे बुराई की जीत या बुराई पे अच्छाई की जीत...जीत के लिए जरूरी है समर्पण की...किसी के लिए रावन कोई भी मायने रखता हो...पर मेरे लिए रावन का जरूरत है अपने अन्दर राम को पहचानने के लिए....आप सभी को विजयादशमी की सुभकामनाये.....:)

Wednesday, October 13, 2010

Ghar Badalbe Se Pahle / घर बदलने से पहले

अनुभूति से ओझल हो रहे प्यार के एहसास के बिच..अँधेरा होने से पहले...दिल के कोने में आकर्षण का दीपक जल जाता ..और एक बार फिर घर बदलने से पहले डाकिया चिट्ठी डाल गया....

(शंकर शाह)

Tuesday, October 12, 2010

DAM / दम

पलकों के बरसात से मिट रहा है इंसानियत ..नए सवेरे की चाह हर रात माँ का आंचल बन लोरी सुनाता... हकीकत का सड़क सुनसान  ...चल रहा है भीर का हिस्सा बन.. आज के गोद मै भूख भुत बनकर दौड़ा रहा है...नहीं जीने के बहुत बहाने है और जीने के लिए एक हौसला काफी...न जाने उसके हौसले में अभी कितना दम है बाकि...

(शंकर शाह)

Saturday, October 9, 2010

Madhusala / मधुशाला

आ बनाया है , ये मधु का प्याला,
लगाले अधरों से भूल जाएगी गम,
भूल जाएगी सब हाला,
रोना नहीं मेरी अंगूरी,
चाहे रोज तोडू तेरा हड्डी या ताला,
आ बनाया है , ये मधु का प्याला
 

माँ को देख ले, कल तक वो
कमाती रही मेरे लिए...
आज तुने है कमान संभाला,
आजा चखले ये स्वर्ग सी प्याला
भूल जाएगी हर गम,
क्योकि हर गम का है
यह हाला,
आ बनाया है , ये मधु का प्याला
 

मत देख पीछे, अपने बच्चो को माँ को,
मैंने खा लिया है, अब भूख नहीं है बाला
अब तो चाहता हूँ दो घूंट उतार लू हलक में
ताकि निशि रात भी न लगे मुझे काला
आ बनाया है , ये मधु का प्याला
 

ह्म्म्म क्या सोचती, मत सोच
अपने ननद के लिए, भगवान ने
उसका भी किस्मत लिख डाला,
उसे भी ले जायेगा कोई पीनेवाला
चल पी न,
आ बनाया है , ये मधु का प्याला
 

क्यों कोश्ती है अपने किस्मत को
तू खुशनसीब है, मै जिसे मिला
वो है किस्मत वाला,
देख नेता कहते मुझे, तू मेरे कुर्सी का रखवाला
देख मेरे वजह से चल रही, टूनडू का मधुशाला
नेताओ की जी हुजूरी दंगा फसाद,
माओबाद का में हीं तो हूँ जाला, 
मुझे मिल जाये अंगूरी  रस
फिर नहीं चाहिए स्वर्ग रूपी मधुशाला
आ बनाया है , ये मधु का प्याला
 

मुझसे हीं घर बिखरे, कई घड़ो मैंने तोड़ डाला
मुझे भी दुख होता है जब तोड़ता मंदिर मस्जिद
पर इसी से तो मिलती है तुझसी मधुबाला
सब साफ़, जब बैठता ऊपर मधुशाला
हाँ येही से सुरुआत येही ख़तम
येही तो है मेरा मधुशाला
आ बनाया है , ये मधु का प्याला


(शंकर शाह)

Friday, October 8, 2010

Hum Bachhe Hai / हम बच्चे है

वक़्त के थपेड़ो का भी जबाब नहीं...जब हम जमीन से आसमान हो रहे होते है..तो कभी सीढ़ी बन जाता है तो कभी पापा का अंगुली तो कभी माँ के आंचल का एहसास और कभी दोस्त के थपेड़ो सा...बेटा ज्यादा मत उड़ वरना लात मारूंगा... सोच के बुगुर्गता के मोड़ पे भी हमे एहसास करा जाता है की हम बच्चे है...... 

(शंकर शाह)

Monday, October 4, 2010

Door Rakhna / दूर रखना

तैयार होते घर की नींव कमजोर थी..मैंने कहा हमारे घर के बुनियाद का नींव हीं कमजोर है...पर मेरी चीख उनके आंख के चमक के आगे फींकी पर गई...मेरा दिल कशोसटा रहा मुझे पर मै कुछ नहीं कर पाया...कई सदस्य थे जो मेरे विचार से इत्तेफाक रखते थे...पर घर के चमक के आगे वोह भी अंधे हो गए...और मै आज भी प्राथना करता रहता हूँ " हे भगवान आपदावो को हमारे शहर से दूर रखना "

(शंकर शाह)

Saturday, October 2, 2010

वो जिंदगी भर दुनिअदारी के अनुभवों के रेट को चुन चुन के मोती बनाते रहे और हम जेनेरेसन गेप कह के उनको ठुकराते रहे....


Friday, October 1, 2010

Tumhare Safar ka Manchitra / तुम्हारे सफ़र का मानचित्र

जब देखता हूँ रात की कालिमा को...एक नए सवेरे का विश्वास होता है...और दिन के भागमभाग के बाद जरूरी हो जाता कुछ पल अँधेरे का...मेरे जीने के लिए.. मुझे बहुत जरूरी है कल से आज को बांधे रखना..कल के नींव से हीं तो मेरे आज का घर है...सुक्रिया मेरे कल पे मुस्कुराने वालो...धरती के चादर ओढ़े हुए जिस पत्थर को तुमने लहरों में बहाया था वो तुम्हारे हाथ से फिसल चूका तुम्हारे सफ़र का मानचित्र था...  


(शंकर शाह)