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MERI KAHANI

Saturday, August 28, 2010

Wo Budha Pipal / वो बूढ़ा पीपल

मेरे होश से खामोश
अपने बुढ़ापे को कोश्ता
कई पीढियो का गवाह
वो बूढ़ा पीपल

मै सोचता क्यों

एक उम्र जिस छाओं तले
"उजरा" भाग चले, खड़ा सोचता
वो बूढ़ा पीपल 

जो कभी रहा बसेरा

किसी बचपन, जवानी बुढ़ापे का
अपने होने का गवाह ढूंढता
वो बूढ़ा पीपल

खड़े जो कभी शान से

जिस टहनिओं पे खेला बचपन
अब तरसता किलकारिओं को
वो बूढ़ा पीपल

लाचार, बेकार सा

छूटता गया अपनों से
पुराना घर सा छुपाते
वो बूढ़ा पीपल

बिता कल खंगालता

मांगता होगा एक और दुहाई
मांगता जवानी या मौत
वो बूढ़ा पीपल

जब भी देखता

टीस सा चुभता
ख्याल आते दादा सा
वो बूढ़ा पीपल


(शंकर शाह)

Thursday, August 26, 2010

Bujdili Hin To / बुजदिली ही तो

रात की तन्हाई में जब भी असमान को ओढ़ता हूँ...अपना आवाज़ अपने को हिन् चीरने दौड़ता है...तारे टिमटिमाते हुए मुझे एहसास कराते है मुर्दों के शहर में तुम भी एक हो...और हवा पत्तियो को सहलाते हुए कहता है...तुझमे कुछ तो बाकि है..फिर भी में भीड़ का हिस्सा...आत्मा हर रोज़ सवाल करती और डर तैयार करता जबाब...क्या है..बुजदिली ही तो मेरा ताकत है..बहानो के किताब से बच्चो को ककहरा सिखा तो सकता हूँ...पर सच्चाई के शिलालेख को कैसे मिटाउन...

(शंकर शाह)    

Monday, August 23, 2010

Mai Loutna Chahta Hoon / मै लौटना चाहता हूँ

मै लौटना चाहता हूँ...छुट रहे भागमभाग में अपनों के घर...मै लौटना छाहता हूँ...आंशु की तरह सुनी गलिओं में जहाँ बचपन दौड़ा करता था...मै लौटना चाहता हूँ...उस मंदिर के चौखट पर जहाँ झगरा "भगवान  कसम" के नाम पर हिन् मर जाया करता था...मै लौटना चाहता हूँ...माँ के गोद में...जिसकी आंचल जो अब प्यासी है मेरे पसीने आंसू पोछने को..मै लौटना चाहता हूँ...मेरे पेड़दादा अब भी जो मेरे बचपन के निशानिओं को अपने में समेटे रखा है...मै लौटना चाहता हूँ.....:( 



(शंकर शाह)

Friday, August 20, 2010

निशिचर रात की गहराइयाँ मुझसे पूछती रही...बता तू ताकता क्या है..मैंने कहा दोस्त कुछ पल और तो निहार लेने दे तेरे पीछे जो उजाला छुपा है..उसे भी हो जाये भरोसा कोई मेरा बाट तकता बैठा है........
 

(शंकर शाह)

Thursday, August 19, 2010

Sawdhan Insaniyat Ke Dushman / सावधान इंसानियत के दुश्मन

कही आँशु पे खिलते राजनीती कमल तो कही मुर्दों के बलात्कार पे...हर हाल पे कुछ अपने रोटिओं के सेकते और बहुत है जो लकड़ी की तरह जल रहे...कुछ खामोश चेहरे कई बोलते बुतों में जान डालना चाहते है..क्रांति की स्याही से लिखी हर किताब चिल्ला चिल्ला कर कह रही है.."में दिनों का नहीं दसको, सदियों का घुटता हुआ..काटा गया, लुटा हुआ दिल का शोर हूँ...हर बार खामोश आँहो को समेत कर ज्वाला बनता और हर बार, बार बार खुद को दोहराऊंगा..सावधान इंसानियत के दुश्मन ".. 
 
 
(शंकर शाह)

Saturday, August 14, 2010

Jo Bit Raha Hai / जो बीत रहा है

कुछ दूरी तय करने के बाद थकान..बैठ जाना सोचना ये अगर अपने आप हो जाता...आंखे सिकुर कर देने लगती है आकार कैसा होता. सपने देखना बेहतर होने का और आकार देना पत्थर को अपने कल्पनावो को सजाके..थकना तो चलने का प्रतिरूप... सपने साकार करने का रास्ता आसान नहीं. शिप को भी सदियों लग जाते है मोती को आकार देने में..हारना फैसला किस्मत के ऊपर और हारना फैसले के साथ चुनौती स्वीकारते..हर रात के बाद दिन..जो बीत रहा है.. बीत रहा है..............................

Friday, August 13, 2010

Budhi Amma / बूढी अम्मा

बूढी अम्मा, पुकारती बिरजू को बीमार है...पर बिरजू है की उसके पास समय ही नहीं ... पापा के पास भी नहीं...मम्मी के पास भी नहीं और तो और बिरजू के पास भी नहीं...घडी के काँटों सा खुद को बना तो लिया है और गर्व है की दुनिया मुझे हीं तो देखती है पूछती है...पर भूल जाते है हर साख की वजूद उसके तनो से है...और तना का वजूद मिटटी से...समय चक्र के संगत में बूढी अम्मा, दादा, पापा  को भूल तो सकते है.. पर वक़्त के चक्र का प्रभाव अपने ऊपर पड़ने से कैसे रोके...

Wednesday, August 11, 2010

Kuch to Jaroor Majra Tha / कुछ तो जरूर माजरा था

सड़क पर दूर भीड़ लगी थी
एक जनसमूह का जैसे मेला लगा था 
रात गहरी थी सूझ नहीं रहा था
पर लगा कुछ तो जरूर माजरा था 

कौतहुलवस् मै भी भीड़ का हिस्सा

देखा तो एक लड़का लड़खड़ा रहा था
फिर पूछा, इस लड़के को देखने भीड़
देखा तो जनसैलाब मुस्कुरा रहा था

कुछ तुतलाहट वाली लब्ज में 

कुछ इशारो मै वह भीड़ को कुछ समझा रहा था
मैंने सोचा होगा नसे मै धुत
इसीलिए शायद बडबडा रहा था

कुछ चेहरे था जो अपने बगल

वाले को कुछ समझा रहा था
जब लडखडाता लड़का आये
करीब, तो थप्पर भी लगा रहा था

मै एक सरीफ इज्जतदार नागरिक

की हैसियत , मेरा रुकना नागवार था
मन ने गाली दी जनसमूह को
और मै वहां से निकल गया

सुबह जब न्यूज़ देखा तो

एंकर किसी को भूखे मरते बता रहा था
तस्वीर देखा तो पता चला
वो तो रात वाला लड़का था

चैनल बदला हर चैनल पर

एक सा हीं न्यूज़ आ रहा था
एंकरों को गौड़ से देखा तो ख्याल आया
ये वो वोही है जो थप्पर और पब्लिक को समझा रहा था



(शंकर शाह)

Tuesday, August 10, 2010

EK KHAMOSH UFF / एक खामोश उफ़फ

उम्र गाँव के गलिओं की तरह हमसे फासला बनाता रहा...कब बचपना गुजरी कब जवानी आई...जब कुछ नन्हे पाँव दुनिआदारी से कदम मिलाकर चलते है तो बरबस ख्याल आता है अपना अतीत...गरीबी एक कलाकार की तरह है...जो एक निर्बोध, निश्छल, निराकार बचपन को दुनिआदारी के ढांचे में ढाल देता है ...ऐसा उलझ कर रह जाता है शरीर जब तक पता चलता है तब उसके यादों में खुछ नहीं जो तनहा पलो में लबो पे मुस्कराहट लाये.. बस होता है तो लब पे एक खामोश उफ़फ.......
 
 
 
(शंकर शाह)

Saturday, August 7, 2010

Insaniyat Ke Khet / इंसानियत के खेत

जो है वो नहीं है...जो नहीं है वो है..कुछ चीजे भावनाओ के साथ ऐसी जुडी होती है..जिसे लाख गलत होने पर भी हम सही साबित करने में तुले होते है..गाँव के सुनसान रास्ते पर पड़े उस शिलालेख की तरह.. भले नाम बदल गया हो गाँव का पर अंकित मिल जायेगा पुराना पता..जाने कई सतको से सुनसान परे इंसानियत के खेत कुछ हरियाली उगना तो चाहती है...पर नजाने कब तक कथित धर्म के ठेकेदार रूपी घासें इंसानियत के फसल को उगने न देगी....
 


(शंकर शाह)

Friday, August 6, 2010

Dimag Ke parakhnali Me / दिमाग के परखनली में

मुझे एक आदत रही.. खुद से बात करने की...में चाँद तारो ग्रहों के आविष्कार में उलझा नहीं...उलझा तो सोच के सोच का आविष्कार में...बहुत कुछ मिले ..नए तजुरबो से मिलता रहा..पर फायदा कुछ नहीं उन सब आविष्कारो में और आविष्कारो की तरह दो पहलु निकले...सुलझाता तरह और उलझता रहा....धातुओ में रसायन का मिश्रण करके एक नया आविष्कार तो हो सकता है..पर दिमाग के परखनली में कौन सा रसायन डाले जो क्रोध, लोभ, मोह को समुचित विनाश कर सके...


(शंकर शाह)

Thursday, August 5, 2010

Andhera Jitna Bhi / अँधेरा जितना भी

जब भी देखता हूँ आसमान का दामन बादलो से घिरा हुआ....ख्यालो के समुन्द्र में ज्वार भाटा आने लगते है...कैसे आसमान अपने दामन को उस काली परछाई से छुटना चाहता है...अपने सिने में दरार पैदा करता है...एक सबक है "अँधेरा जितना भी गहरा हो छन्भंगुर है " क्योकि उजाला उससे कुछ फासला हीं दूर है....

(शंकर शाह)

Monday, August 2, 2010

Samsaan Me Ghar Banaoge / शमशान में घर बनाओगे

जिंदगी के रास्ते में बहुत अजूबे मिलते ...जिनके बारे में हम जितना राय कायम करे वो सब गलत...क्योकि हमारा विचार उनके विचारो के आकाशगंगा तक नहीं पहुँच पाता ..उन  महापुरुषों में सिर्फ इतना होता है " जो हम कर रहे है वो सही है..होना भी चाहिए जिंदगी का एक तजुर्बा होता है उनके पास...जो भी हो..सही आप जितना भी ठहरालो अपने आप को परन्तु इतना तो जरूर है शमशान में घर बनाओगे तो भूत का डर तो रहेगा हीं.......
 

(शंकर शाह)

Saturday, July 31, 2010

Hey Bhagwan Ye Kaisi hai Bidai / हे भगवान ये कैसी है बिदाई,

जिसके साथ खेला कूदा,
जिसके साथ अकेला की लड़ाई
जिसके खुशी से खुशी होता,
जिसके गम पे दिल हो भर आई

हे भगवान ये कैसी है बिदाई,

मेरे गलतियो एवज मार से बचाने
वाली, जो मेरे लिए खुद मार खाई
जिसके कारन कभी अकेला न समझा,
न कभी दोस्तों की कमी महसूस हो पाई

हे भगवान ये कैसी है बिदाई,

साथ चलते चलते जो गुडिया थी, अब बड़ी
है हो आई, जो बहन थी, अब बेटी सी है
साईं , जिसे कभी समझा नहीं पराया धन
आज वोही कौन सी मोड़ पे है आई

हे भगवान ये कैसी है बिदाई,

जिस सिने में सिर्फ पत्थरो का डेरा था
उस सिने में भी है मोम पिघल आई
जो कल दुनिया दारी  के चक्कर में पहाड़
बन गया था, उसकी आंख भी भर आई

हे भगवान ये कैसी है बिदाई,

जिन आँखों को ज़माने ने रेगिस्तान
कहा, जिस दिल को कहा पत्थर 
उन्ही आँखों में ये कैसी नमी है आई 
हे भगवान ये कैसी है बिदाई,

किसी से बेटी, मुझ से बहन की
आज हो रही है जुदाई
हे ऊपर वाले ये कैसी रित
एक जीवन मुझसे हो रही पराई

हे भगवान ये कैसी है बिदाई,



(शंकर शाह)

Friday, July 30, 2010

Kuch to Tha Un Yado Me / कुछ तो था उन यादो मैं


मैं एक सफर मैं था !
मेरे उस सफर मैं
एक परिवार अपने दो
बच्चो और माँ के साथ कही जा रहा था !!

जो छोटा बच्चा था अपनी माँ के
साथ खेलने मैं मगन था !
खेल वो जो हर किसी के बचपन से है
खेल वो मेरा भी बचपन याद दिला रहा था !!

और वो बूढी अम्मा जो खिरकी के पास बैठी थी
इन पलो के देख कर कही खो गई
सायद अपने बचपन मैं
मेरी नजरे भी उस नज़ारे को देख मगन हो रहा था !!

पर कुछ तो था जो मेरे ख्यालो मैं
खलल दाल रहा था !
 
वो बड़ा लड़का जो दादी के पास
बैठा था ' नजाने उसे क्या शैतानी सूझी वो दादी के साथ मस्ती करने लगा !!

मैंने देखा वो झुरियों से लदे चेहरे
पर एक मुस्कान का लकीर आया
पर तुंरत मैंने वो चेहरे से
मुस्कान को वापस जाता पाया !!

मैंने देखा बहु बेटे की नजर
गुस्से से उसके अपने बेटे पर पाया
लड़का माँ बाप के नजर को देख
सहम कर चुपचाप बैठ गया !!

"और वो कांपती बदन' उस
बूढी आँखों मैं दो बूंद आंसू का था "
वो ऑंखें सीकुर गई थी सायद
अतीत के यादो मे

बदन और और कांप रहा था
ऑंखें और सीकुर रही थी
पता नही उन यादों मैं क्या था !!
अतीत का वो याद जो

किसी के बचपन को सहारा दिया था
या वो जो उसके जवानी को
संवारा था !!!
"या कुछ ऐसा जो
अभी के पलो को जवानी मैं गुजारा था"

कुछ तो था उन यादो मैं
जो मेरे ख्यालो मैं खलल दाल रहा था !!!


(शंकर शाह)