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MERI KAHANI

Monday, May 31, 2010

Samkhoute Ki Jindagi / समझौते की जिंदगी

जब पडोसी का गलती देखा तो सोचा प्रतिवाद करू पर पापा का चेहरा याद आ गया....फिर पाठसाला गया वहां गुरूजी का गलती देखा फिर वहां सोचा प्रतिवाद करू पर अंक कट जायेंगे ख्याल आया...बाजार आया वहां देखा कुछ लडको का गलती फिर सोचा प्रतिवाद करू पर मार खाने का डर आया....फिर नौकरी वहां मालिक का शोषण फिर सोचा प्रतिवाद करू पर नौकरी खो देने का डर आया ....इसी तरह डर के साथ समझौते की जिंदगी जी रहा हूँ....कई बहानो के  साथ...ताकि मेरा डर शानवघार  मुखौटे के सामने ढक जाये....
 


(शंकर शाह)

Saturday, May 29, 2010

Majboori Ka Chola / मजबूरी का चोला

जब इंसानियत "बाद" को देखता हूँ...तो सोचता हूँ बुद्हम: सरनम: गच्छामी हो जाऊ तो कभी सोचता हूँ शिव तांडव करू....और इस विचार रूपी सोच के सोच पर बहुत आगे निकल जाता हूँ...और वास्तविकता वहीँ वहीँ रह जाता है...सवाल यह नहीं है की कुछ इन्सान इंसानियत को "बाद" क्यों कर रहा है...सवाल ये है की मैं क्या करू ?....और इसी तरह एक विषय को लेके सोच और विचार का द्वंध में हार जीत का फैसला करने में लग जाता हूँ...जीता हारा कौन उससे कोई लेना देना नहीं मैं कितना जल्दी उस द्वंध से निकल पाया वो मायने रखता है....कभी मजबूरी का चोला पहेनकर तो कभी केह्कर की "मैं क्या कर सकता हूँ".......
 


(शंकर शाह)

Friday, May 28, 2010

Yadein / यादे

"यादे" कभी गर्मी में सीतल हवा के झोंका का सा....कभी पीपल के छाओं जैसा तो कभी प्यासे राही को मिल जाये पानी का कुँवा सा...और कभी रेगिस्तान के सफ़र जैसा तो कभी रास्ते मैं खड़े चट्टान सा...याद कभी मीठा चुभन सा तो कभी खुद से अलग होती धड़कन सा....जिंदगी यादो से और याद जिंदगी सा..जो भी हो पर इसके पीछे तो है त्याग प्यार और एहसास छुपा...जो खास खामोश लम्हों में लगता है जुड़ा सरीर से साया  सा...........
 



(शंकर शाह

Wednesday, May 26, 2010

Jiwan Geet Ek / जीवन गीत एक

चाँद से चमक लेकर..कलियों से मुस्कुराना..हवाओं से महक बादलो से सरमाना..
यूँ तैयार होता हर रात सुनसान ख्वाबो मैं एक तस्वीर बनाना...नित: बानाता हूँ एक तस्वीर कभी वो मेरे सोच की परी होती है तो कभी मेरे सोच रूपी विरह की अग्नि...और यूँ हीं चलता रहता है मेरा तन्हा सफराना..आखिर मैं भी तो इंसान हूँ...आखिर मेरा भी तो है एक जीवन गीत एक ....
 


(शंक्कर शाह)

Monday, May 24, 2010

Pratibha Na Ling se / प्रतिभा न लिंग से

चट्टान को तोड़ राह बनाना, आसमान मै पंछियों को ठेंगा दिखाना, चाँद पे पहुँच उसके वास्तविकता को निहारना और सूर्य से आंख मिलाके उसके चुनौती स्वीकारना..क्या है ये...
चुनौती से कुछ करने की प्रेरणा, प्रेरणा से प्रतिभा, और प्रतिभा से एक नायक पैदा होता है..
प्रतिभा न लिंग से ताल्लुक रखता है न किसी जाती विशेस से......तो स्वीकार लो चुनौती और करदो.........


(शंकर शाह)

Saturday, May 22, 2010

Hunsna Prithvi Jaisa / हंसना पृथ्वी जैसा

हंसना पृथ्वी जैसा एक आकार अपने चेहरे पे..और पृथ्वी जैसा विभिन्ताये लिए...किसी के दुःख पे हंसा तो उसका दुःख बाँट लिया...किसी के खुसी पे हंसा तो उसके ख़ुशी को एहसास कर लिया...किसी ने इज्जत उतारा तो हंसके सहमति दे दिया की उतर गया..कितना अजब है ना...पर रोना माँ के चेहरे जैसा है...एक उदास चेहरा जो अपने कलेजे को जमाना नाम के कसाई के हवाले कर रही हो...पर हम पृथ्वी जैसे गोलाई लिए......:)


(शंकर शाह)
 

Friday, May 21, 2010

Chalna Jindagi Hai / चलना जिंदगी है

सुना है घोर कलियुग है...सृष्टी की अंतिम घड़ी है या पुनः सतियुग आयेगा..
पर सतियुग और कलियुग इन दोनों मैं प्रकिती कहा बदल गयी है ? क्या पेड़ो ने फल देना बंद कर दिया है..क्या धरती में फसल की जगह और कुछ उगने लगे है..सोचो..परिवर्तन प्रकिती मै नहीं है परिवर्तन हम मनुष्य ने लाया है...फिर सोचना बदलाव का, किसी के द्वारा क्या संभव है ...चलना जिंदगी है रास्ता उसका सोच...पर रास्ते में "मोड़ भी तो आते है"....
 

(शंकर शाह)

Wednesday, May 19, 2010

Kash Is Bahane / काश इस बहाने

हे सूर्य अपना किरणों को बाँट दो...हे पवन आप अपने हवाओ मैं अलग एहसास दो...हे पानी उसमे जीवन कुछ खास दो....हे प्रकृति कुछ ऐसा करो जो सबको सबसे अलग एहसास हो...
आखिर सवाल है यहाँ धर्म का है...और पता तो चले किस धर्म के शासक के हुक्म से हमे जीवन दे रहे हो..काश इस बहाने तो पता चल जाये...





(शंकर शाह)

Tuesday, May 18, 2010

Kaha Hai Lachari / कहा है लाचारी

सागर से गहरा, नील आकाश से फैला, झरनों से सीतल, चाँद से सुनेहरा, धरती जैसी औरत  माँ और उनका प्यार...पर जब भ्रूण हत्या की बात आती है तो सबसे ज्यादा जिम्मेवार कौन है? जिस औरत को माँ दुर्गा, काली, सरस्वती देवीओं मैं गिना जाता है, और उन्ही के घर मैं ऐसा...पर क्यों..कमी कहाँ है..आप हीं अवतार हो और आपसे हीं सारा अवतारी..फिर कहा है लाचारी...?
(शंकर शाह)

Monday, May 17, 2010

Karan Soch ko / कारण सोच को

फूल और कांटे दोनों तो एक पेड़ के हीं हिस्से है पर कभी हम फूल को अहमियत देते है तो कभी कभी काँटों को...क्यों?...चाँद खुबसूरत भी है और उसमे दाग भी..पानी जिंदगी भी देती है और उसमे डूब जाओ तो मौत भी...सोच हमारे नजरिये को और कारण सोच को सोचने पर मजबूर करता है..अब निर्भर करता है की इसके आगे सोचना है.. की....
(शंकर शाह)

Friday, May 14, 2010

Apna Ek Dunia Banane Ka / अपना एक दूनिया बनाने का

 एक नन्हा लडखडाता कदम जो अंगुलिओं को थाम चलना सिखा...देखते हीं देखते वही कदम  डेग भरने लगता है...दुनिया से आगे निकल जाने का....अच्छा है और सही भी...अपना एक नई दूनिया तो होनी हीं चाहिए...पर तकलीफ तो तब है....जब वही कदम दुनिया समेत लेना चाहता है अपने हथेलिओं में घर के आगे दिवार खड़ा कर..क्या अपना एक दूनिया बनाने का येही एक तरीका है...
(शंकर शाह)

Thursday, May 13, 2010

Mastisk Ek Prayogsala / मस्तिस्क एक प्रयोगशाला

पर्वत के ऊंचाई से समुन्द्र कहता है.....समुन्द्र से फिर पर्वत कहता है...फूल भवरों से कहती है...भंवरा फिर फूल से कहता है...सवाल है क्या?
और जवाब सबके अलग अलग...हमारा मस्तिस्क एक प्रयोगशाला की तरह है जैसा सब्दो का रसायन डालेंगे वैसा विचारो का वस्तु तैयार होगा...अब ये हम पर है की...

(शंकर शाह)

Wednesday, May 12, 2010

Apne pas kuchh hone ka ehsaas / अपने पास कुछ होने का एहसास हीं

अगर एक बार इन्सान मान ले की अगर वो सड़क पे पैदा हुआ होता और वहीँ बड़ा हुआ होता...उसका न माँ का पता होता न बाप का तो... उसका धर्म क्या होता....वो हिन्दू होता, मुस्लिम होता, इसाई होता या कुछ और...अपने पास कुछ होने का एहसास हीं...सबकुछ करने को प्रेरित करता है....फैसला खुद को करना है की "करना क्या है"...

(शंकर शाह)

Tuesday, May 11, 2010

Aiyas grih to / ऐयाश गृह तो

एक नन्हा पेड़ किसी के क्यारी मैं आता है तो उसी वक़्त फैसला कर लेता है की ये बड़ा होगा तो फल खायेंगे...लकड़ियों से चूल्हा जलाएंगे....और बुड्ढा हो जायेगा तो इसकी लकड़ों से दरवाजा पलंग कुर्सी बनायेंगे...और जब उसी पेड़ पर कोई और हिस्सा ज़माने लगता है तो....इसी तरह धर्म... नैतिकता के नाम पर अनैतिक कार्य करते जाओ उपरलोक में ऐयाश गृह तो तैयार है हिन् न...और......
(शंकर शाह)

Monday, May 10, 2010

Purnaviram baki hai / पूर्णविराम बाकि है

ग्रीष्म में सूर्य से, बर्षा में बारिश से, नदी से बाढ़ में, हवा से तूफान में...कितना अजीब है जिसके बगैर जिंदगी न हो..उससे भी कितना परेशान हो जाते है न...सायद ऐसे हिन् जब माँ बाप बूढ़े हो जाते हैं तब...इस सोच पर सोचना येहीं ख़तम नहीं हुआ..............पूर्णविराम बाकि है..


(शंकर शाह)