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MERI KAHANI

Saturday, May 22, 2010

Hunsna Prithvi Jaisa / हंसना पृथ्वी जैसा

हंसना पृथ्वी जैसा एक आकार अपने चेहरे पे..और पृथ्वी जैसा विभिन्ताये लिए...किसी के दुःख पे हंसा तो उसका दुःख बाँट लिया...किसी के खुसी पे हंसा तो उसके ख़ुशी को एहसास कर लिया...किसी ने इज्जत उतारा तो हंसके सहमति दे दिया की उतर गया..कितना अजब है ना...पर रोना माँ के चेहरे जैसा है...एक उदास चेहरा जो अपने कलेजे को जमाना नाम के कसाई के हवाले कर रही हो...पर हम पृथ्वी जैसे गोलाई लिए......:)


(शंकर शाह)
 

Friday, May 21, 2010

Chalna Jindagi Hai / चलना जिंदगी है

सुना है घोर कलियुग है...सृष्टी की अंतिम घड़ी है या पुनः सतियुग आयेगा..
पर सतियुग और कलियुग इन दोनों मैं प्रकिती कहा बदल गयी है ? क्या पेड़ो ने फल देना बंद कर दिया है..क्या धरती में फसल की जगह और कुछ उगने लगे है..सोचो..परिवर्तन प्रकिती मै नहीं है परिवर्तन हम मनुष्य ने लाया है...फिर सोचना बदलाव का, किसी के द्वारा क्या संभव है ...चलना जिंदगी है रास्ता उसका सोच...पर रास्ते में "मोड़ भी तो आते है"....
 

(शंकर शाह)

Wednesday, May 19, 2010

Kash Is Bahane / काश इस बहाने

हे सूर्य अपना किरणों को बाँट दो...हे पवन आप अपने हवाओ मैं अलग एहसास दो...हे पानी उसमे जीवन कुछ खास दो....हे प्रकृति कुछ ऐसा करो जो सबको सबसे अलग एहसास हो...
आखिर सवाल है यहाँ धर्म का है...और पता तो चले किस धर्म के शासक के हुक्म से हमे जीवन दे रहे हो..काश इस बहाने तो पता चल जाये...





(शंकर शाह)

Tuesday, May 18, 2010

Kaha Hai Lachari / कहा है लाचारी

सागर से गहरा, नील आकाश से फैला, झरनों से सीतल, चाँद से सुनेहरा, धरती जैसी औरत  माँ और उनका प्यार...पर जब भ्रूण हत्या की बात आती है तो सबसे ज्यादा जिम्मेवार कौन है? जिस औरत को माँ दुर्गा, काली, सरस्वती देवीओं मैं गिना जाता है, और उन्ही के घर मैं ऐसा...पर क्यों..कमी कहाँ है..आप हीं अवतार हो और आपसे हीं सारा अवतारी..फिर कहा है लाचारी...?
(शंकर शाह)

Monday, May 17, 2010

Karan Soch ko / कारण सोच को

फूल और कांटे दोनों तो एक पेड़ के हीं हिस्से है पर कभी हम फूल को अहमियत देते है तो कभी कभी काँटों को...क्यों?...चाँद खुबसूरत भी है और उसमे दाग भी..पानी जिंदगी भी देती है और उसमे डूब जाओ तो मौत भी...सोच हमारे नजरिये को और कारण सोच को सोचने पर मजबूर करता है..अब निर्भर करता है की इसके आगे सोचना है.. की....
(शंकर शाह)

Friday, May 14, 2010

Apna Ek Dunia Banane Ka / अपना एक दूनिया बनाने का

 एक नन्हा लडखडाता कदम जो अंगुलिओं को थाम चलना सिखा...देखते हीं देखते वही कदम  डेग भरने लगता है...दुनिया से आगे निकल जाने का....अच्छा है और सही भी...अपना एक नई दूनिया तो होनी हीं चाहिए...पर तकलीफ तो तब है....जब वही कदम दुनिया समेत लेना चाहता है अपने हथेलिओं में घर के आगे दिवार खड़ा कर..क्या अपना एक दूनिया बनाने का येही एक तरीका है...
(शंकर शाह)

Thursday, May 13, 2010

Mastisk Ek Prayogsala / मस्तिस्क एक प्रयोगशाला

पर्वत के ऊंचाई से समुन्द्र कहता है.....समुन्द्र से फिर पर्वत कहता है...फूल भवरों से कहती है...भंवरा फिर फूल से कहता है...सवाल है क्या?
और जवाब सबके अलग अलग...हमारा मस्तिस्क एक प्रयोगशाला की तरह है जैसा सब्दो का रसायन डालेंगे वैसा विचारो का वस्तु तैयार होगा...अब ये हम पर है की...

(शंकर शाह)

Wednesday, May 12, 2010

Apne pas kuchh hone ka ehsaas / अपने पास कुछ होने का एहसास हीं

अगर एक बार इन्सान मान ले की अगर वो सड़क पे पैदा हुआ होता और वहीँ बड़ा हुआ होता...उसका न माँ का पता होता न बाप का तो... उसका धर्म क्या होता....वो हिन्दू होता, मुस्लिम होता, इसाई होता या कुछ और...अपने पास कुछ होने का एहसास हीं...सबकुछ करने को प्रेरित करता है....फैसला खुद को करना है की "करना क्या है"...

(शंकर शाह)

Tuesday, May 11, 2010

Aiyas grih to / ऐयाश गृह तो

एक नन्हा पेड़ किसी के क्यारी मैं आता है तो उसी वक़्त फैसला कर लेता है की ये बड़ा होगा तो फल खायेंगे...लकड़ियों से चूल्हा जलाएंगे....और बुड्ढा हो जायेगा तो इसकी लकड़ों से दरवाजा पलंग कुर्सी बनायेंगे...और जब उसी पेड़ पर कोई और हिस्सा ज़माने लगता है तो....इसी तरह धर्म... नैतिकता के नाम पर अनैतिक कार्य करते जाओ उपरलोक में ऐयाश गृह तो तैयार है हिन् न...और......
(शंकर शाह)

Monday, May 10, 2010

Purnaviram baki hai / पूर्णविराम बाकि है

ग्रीष्म में सूर्य से, बर्षा में बारिश से, नदी से बाढ़ में, हवा से तूफान में...कितना अजीब है जिसके बगैर जिंदगी न हो..उससे भी कितना परेशान हो जाते है न...सायद ऐसे हिन् जब माँ बाप बूढ़े हो जाते हैं तब...इस सोच पर सोचना येहीं ख़तम नहीं हुआ..............पूर्णविराम बाकि है..


(शंकर शाह)

Saturday, May 8, 2010

Maa too to hai na / माँ तू तो है ना



माँ तू तो है ना,

इस रेगिस्तान सी दुनिया,
जिंदगी के भूल भुलैया मैं,
रास्ता तलाश रहा हूँ,
पथप्रदर्शक की तरह
माँ तू तो है ना !

मैं नहीं जानता माँ
इस दुनिया का इशारा
आसमान का
शासक कौन है,
मेरे दुनिया की भगवान
माँ तू तो है ना !

बुजुर्गो के सम्भलते
कदम लाठियों के सहारे,
मेरे नन्हे कदम
की सहारा,
माँ तू तो है ना !

देखता हूँ बूढ़े पेड़ो को
जमिन्दोंज होते हुए,
मेरे कली सी जीवन
का माली,
माँ तू तो है ना !

भागता हूँ, दौरता हूँ,
गिरता फिर संभल जाता
थक जाता हूँ माँ,
छाँव का नीला चादर सा
माँ तू तो है ना !

मेरे भावनाओ के
उछलकूद को कोई
पागलपन कहे,
मेरे पागलपन को पुचकारती,
माँ तू तो है ना !

दुनिया की ख्वाहिश
मुझे कल्पवृक्ष
नहीं चाहिए
मेरे ख्वाहिशो की कल्पवृक्ष
माँ तू तो है ना !
माँ तू तो है ना !



(शंकर शाह)


* यह कविता मेरी माँ को समर्पित....

Thursday, May 6, 2010

Gam aur Khushi / गम और ख़ुशी

कितनी बार सोचता हूँ की कितने कवि साये को कितना बेवफा साबित कर जाते है...पर साये का त्याग को देखिये हर पल साथ होता है...अँधेरे मैं बस महसूस नहीं कर पाते...क्योकि मै ख़ुशी को हिन् महसूस करना चाहता हूँ गम को नहीं...हमारा साया गम और ख़ुशी की तरह है....जबतक ख़ुशी नुमा उजाला साथ है तो गम की फिकर कहाँ और गम आया तो घबरा गये...गम और ख़ुशी का रिश्ता अटूट है...जैसे रौशनी और साये का..फिर दोष किसका...?
 


(शंकर शाह)

Wednesday, May 5, 2010

Maa Papa Apka yaad Bahut ata hai / माँ पापा आपका याद बहुत आता है

एक शब्द है जो खामोश लम्हों मैं बहुत सताता है...एक प्यास है जो हर बार बढ़ जाता है...इस रेगिस्तान सी दुनिया मैं एक साया है जो...नीला चादर बनकर साथ निभाता है...हार जाता हूँ जब खुद से...एक आवाज़ है जो हौसला दिलाता है...भगवान करे मेरी उम्र भी अपलोगो को लग जाये...माँ पापा आपका याद बहुत आता है.....


Tuesday, May 4, 2010

Dhokha / धोखा

मैं आइने में जब भी अपना चेहरा देखता हूँ...मैं खुदमे दो चेहरे पाता हूँ..एक जो ज़माने की हिसाब से दिखना चाहता है और दूसरा खुद मैं खुद को तलाशता है..कभी कभी ऐसा लगता है जो हूँ दिख जाऊं पर आइना मेरा सृन्गारित चेहरा हिन् दिखाता है.. मतलब ये है 'धोखा देना चाहे तो आइने को तो दे सकते है पर दिल का क्या करे अपने विचारो का क्या करे...


(शंकर शाह)

Monday, May 3, 2010

Har Niswarth Bhavna / हर निस्वार्थ भावना

आज मैं बहुत उदास रहा...सोचता रहा की "मैं जो सोचता हूँ क्या सही है".क्या "खुद" से दुनिया बदलने की बात सही है...फिर ख्याल आया क्या नदी भी सोच कर चलती होगी की खाड़े समुन्द्र को मीठा कर देगी...क्या पतंग भी सोचकर चलता होगा एक दिन अपने प्यार से अग्नि को भी सीतल कर देगा...क्या पक्षी अपने बच्चे दाना देती है ये सोचकर कि ये बड़े होकर मेरे बुढ़ापे का सहारा बनेंगे...हर निस्वार्थ भावना के पीछे त्याग होता है...बस जरूरत है सामर्थ्य की...

 

(shankar shah)